मेरे बारे में

मेरी फ़ोटो
Journalist and writer, Writes on Northeast India, Bangladesh, Myanmar

रविवार, 16 जून 2013

पै अंग्रेजी ज्ञान बिन रहत हीन के हीन



हालांकि हम पर कभी लोहिया के अंग्रेजी हटाओ आंदोलन का प्रत्यक्ष प्रभाव नहीं पड़ा, लेकिन आज मैं एक स्कूली बच्चे की मानसिकता की सहज ही कल्पना कर सकता हूं जो अपने पाठ्‌यक्रम में से कोई एक विषय कम होने पर कितना उत्फुल्लित होता होगा। आज भी जब कोई हिंदीवादी या असमियावादी, या बोड़ोवादी अपनी भाषा के पक्ष में दलील देते हुए अपने से बड़ी भाषा-अंग्रेजी, हिंदी या असमिया- को कोसता है तो एक स्कूली बच्चा उनका सबसे बड़ा समर्थक होता होगा। उसे मातृभाषा के आंदोलन में अपना स्कूली बोझ कम होता दिखाई देता है। जब लोहिया ने "अंग्रेजी हटाओ' का नारा दिया तो भले उनका आशय अंग्रेजी को प्रशासन से, न्यायालय से और शिक्षा के माध्यम से हटाने का रहा होगा, लेकिन स्कूली विद्यार्थियों ने इससे एक ही बात समझी होगी कि अब हमें अंग्रेजी भाषा का भारी-भरकम ज्ञान निगलना नहीं होगा।

आज स्थिति काफी बदल चुकी है। आज अंग्रेजी हटाओ के लिए कोई जगह नहीं है। इसके उलट अंग्रेजी पल्प लिटरेचर का एक हस्ताक्षर आज के युवाओं के लिए सेलेब्रिटी है। पता नहीं राजनीतिक पार्टियों को यह बात समझ में आई है या नहीं कि हमारे देश के बहुभाषी होने की कीमत हम अंग्रेजी के रूप में चुका रहे हैं। जो भी हो, एक राजनीतिक कार्यक्रम के रूप में "अंग्रेजी हटाओ' या "हिंदी लाओ' जैसे नारों की उपयोगिता बिल्कुल समाप्त हो चुकी है।

अपनी भाषा को विकसित करने की इच्छा होना एक सहज स्वाभाविक इच्छा है। जिस तरह अपने देश को विकसित करने की इच्छा। लेकिन यह काम जिद भरे राजनीतिक आंदोलनों से नहीं हो सकता। इसके लिए कितने अध्यवसाय की जरूरत होती है, कैसी प्रतिबद्धता चाहिए, किस तरह एक-एक शब्द विकसित करना पड़ता है इस विषय में न जाकर हम इस विरोधाभास जैसी लगने वाली बात को रेखांकित करना चाहेंगे कि अपनी भाषा को विकसित करने की पहली शर्त होती है अपने से बड़ी भाषा का अच्छा ज्ञान होना। हिंदी के लिए यह बड़ी भाषा अंग्रेजी हो सकती है, असमिया के लिए हिंदी हो सकती है, इसी तरह बोड़ो के लिए असमिया हो सकती है। भाषणों में भाषाओं को बहनें कहा जाता है, जबकि व्यवहार में भाषाओं के बीच आपस में सौतनों जैसी ईर्ष्या होती है। अक्सर एक भाषा दूसरी भाषा से कुछ भी सीखने से साफ इनकार कर देती है। क्योंकि दूसरी भाषा से सीखना उसे अपने आत्मसम्मान के विरुद्ध लगता है। और किसी भाषा को अपने से बड़ी समझना? आप क्या बात करते हैं? भाषा के नाम पर हमारे देश में दंगे हुए हैं और आप कहते हैं किसी दूसरी भाषा को अपने से बड़ी भाषा मान लें!

जो भी हो, यदि आप हिंदी की स्थिति देखें तो पाएंगे कि यह भाषा पत्रकारिता, साहित्य, मनोरंजन, विज्ञापन और बोलचाल की भाषा बनकर रह गई है। आज जो ज्ञान का विस्फोट हो रहा है उससे हिंदी का दूर-दूर तक कोई रिश्ता नहीं है। इस बात को जांचने का एक आसान सा तरीका है गूगल का सर्च इंजन। मान लीजिए आप किसी साधारण से प्रश्न का जवाब खोजना चाहते हैं, उदाहरण के लिए आप यह जानना चाहते हैं कि शिमला में ठहरने के लिए कौन-सी अच्छी जगह है। यह जानकारी यदि आप हिंदी में खोजना चाहें तो आपको हो सकता है निराश होना पड़े। लेकिन अंग्रेजी में यदि खोजें तो तुरंत आपके सामने सूचनाओं की थाली सज जाएगी। ऐसी स्थिति में जो लोग अंग्रेजी नहीं जानते वे इंटरनेट का समुचित लाभ नहीं उठा पाते। उनके लिए सूचना क्रांति का आना और नहीं आना बराबर है। उसी तरह जिस तरह अंग्रेजी नहीं जानने वालों के लिए अमरीका में किसी नई धांसू किताब का निकलना और नहीं निकलना बराबर है।

एक राजनेता हाल ही में एक हिंदी संस्था के कार्यक्रम में गए। उनके भाषण का सार यह था कि हिंदी जरूर सीखनी चाहिए क्योंकि जितनी ज्यादा भाषाएं सीखी जा सकें उतना अच्छा है। यह वक्तव्य साफ दिखाता है कि उन्हें भाषाओं के आंतरिक विज्ञान के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं है। क्योंकि अधिक से अधिक भाषाएं सीखना एक बात है, और एक ऐसी भाषा सीखना जिसमें विश्व का ज्यादा से ज्यादा ज्ञान एकत्र है बिल्कुल दूसरी बात है। कोई सीख सके तो अच्छी बात है, लेकिन आज जरूरत ज्यादा से ज्यादा भाषाओं के सीखने की नहीं बल्कि ज्यादा से ज्यादा ऐसी भाषा को सीखने की है जो समर्थ है, जिसमें विश्व का ज्ञान समाहित है। जो अपनी भाषा को अत्यधिक प्यार करता है उसके लिए भी अंग्रेजी का अच्छा ज्ञान अनिवार्य है। क्योंकि ऐसा नहीं होने पर वह स्वयं बहुत सारे ज्ञान से अछूता रह जाएगा, और दूसरे वह इस ज्ञान को अपनी भाषा में नहीं ला पाएगा।



बीटीएडी बनने के ठीक बाद एक बोड़ो सभा में जाना हुआ। श्रोताओं में से अधिकतर लोग बोड़ो और असमिया दोनों भाषाएं जानते थे क्योंकि वहां की आबादी मिश्रित आबादी थी। लेकिन बीटीएडी की कमान संभालने वाले नए-नए लोकतांत्रिक राजनीति में आए पूर्व उग्रवादी हाग्रामा मोहिलारी ने कहा कि बचपन से उन्होंने सिर्फ बोड़ो भाषा के माध्यम से पढ़ाई की है, इसलिए वे दूसरी भाषा नहीं जानते। उन्होंने अपना भाषण बोड़ो भाषा में ही दिया। यहां सवाल यह नहीं है कि हम उस भाषण को कितना समझ पाए। सवाल यह है कि उग्र मातृभाषा प्रेम ने हाग्रामा मोहिलारी जैसों की एक पूरी पीढ़ी को अपने आसपास की दुनिया से काट दिया। बोड़ो भाषा अपने विकास के शैशव काल में है। उसमें अभी दुनिया भर का ज्ञान और विद्याएं इकट्ठा नहीं हुए हैं। लेकिन यदि बोड़ो जानने वाले अच्छी असमिया, हिंदी या अंग्रेजी नहीं जानेंगे तो यह ज्ञान बोड़ो भाषा में कौन लाएगा? यह बात हर भारतीय भाषा पर लागू होती है। आज के दिन किसी भी भारतीय भाषा का प्रेमी यदि यह कहता है कि हमें अंग्रेजी की कोई जरूरत नहीं, तो वह अपनी भाषा का प्रेमी नहीं दुश्मन है।

देखें आलेख - अंग्रेजी मैया की जय (नीचे क्लिक करें)
http://binodringania.blogspot.in/2010/11/blog-post.html