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Journalist and writer, Writes on Northeast India, Bangladesh, Myanmar

रविवार, 10 मार्च 2013

क्या है पूर्वोत्तर के 'शोषण' की असली कहानी




 पूर्वोत्तर राज्यों के बारे में यह एक आम धारणा है कि ये राज्य पिछड़े हुए हैं और यदि केंद्र सरकार अधिक आर्थिक सहायता दे तो ये भी अन्य भारतीय राज्यों के समकक्ष पहुंच सकते हैं। पूर्वोत्तर राज्यों के आर्थिक विकास के लक्ष्य को ध्यान में रखकर पिछली केंद्रीय सरकार के समय बनाए गए विजन डाक्यूमेंट 2020 में कहा गया है कि स्वाधीनता के समय ये राज्य काफी समृद्ध थे और बाद में धीरे-धीरे विकास की दौड़ में पिछड़ते गए। 

पूर्वोत्तर के राज्यों की आज जो स्थिति है उसे देखते हुए इन्हें पिछड़ा कहना उचित है और नहीं भी। ये दोनों ही बातें इसलिए सही हैं कि पूर्वोत्तर राज्यों की औसत प्रति व्यक्ति आय 5070 रुपए राष्ट्रीय औसत प्रति व्यक्ति आय 4485 रुपए से अधिक है कम नहीं। इन राज्यों में गरीबी रेखा से नीचे की आबादी का प्रतिशत (33 फीसदी) राष्ट्रीय प्रतिशत 39 से कम ही है। इसके अलावा विकास को मापने के कई पैमानों पर जैसे साक्षरता या प्रति व्यक्ति बिजली की उपलब्धता जैसे पैमानों पर भी पूर्वोत्तर के राज्य बिहार, झारखंड जैसे राज्यों से आगे हैं पीछे नहीं। 
लेकिन साथ ही इसमें यह भी जोड़ना जरूरी है कि सड़कों की स्थिति, औद्योगिक विकास के लिए जरूरी बुनियादी ढांचे आदि को देखा जाए तो पूर्वोत्तर के राज्य अन्य भारतीय राज्यों की अपेक्षा काफी पीछे हैं। इसके लिए इस इलाके का भूगोल भी जिम्मेवार है। असम और त्रिपुरा का ज्यादातर हिस्सा समतल है, जबकि बाकी पांचों राज्यों (मणिपुर की इंफाल घाटी को छोड़कर) में सिर्फ पहाड़ी इलाका है जहां परंपरागत रूप से आवागमन के कोई साधन नहीं थे। बुनियादी ढांचे के अभाव के कारण यहां निजी पूंजी आकर्षित नहीं हुई और यह इलाका मूलतः कृषि आधारित अर्थव्यवस्था वाला इलाका बनकर रह गया। जाहिर है कृषि में रोजगार उपलब्ध कराने की क्षमता की एक सीमा है। 
पूर्वोत्तर राज्यों के राजनीतिक विमर्श में केंद्र सरकार को गाली देने और भेदभाव का आरोप लगाने का फैशन कभी पुराना नहीं पड़ा। पूर्वोत्तर के राजनेता अपनी जनता के लिए भले कुछ खास नहीं कर पाए हों लेकिन केंद्र पर यह आरोप लगाने में वे कभी पीछे नहीं रहे कि वह इन राज्यों को विकास के लिए समुचित राशि उपलब्ध नहीं कराता। ये आरोप अक्सर वस्तुस्थिति के विपरीत हैं। पांच दशकों से पूर्वोत्तर राज्यों को मिलने वाली प्रति व्यक्ति केंद्रीय सहायता राशि बिहार जैसे गरीब और पिछड़े राज्यों की अपेक्षा काफी अधिक रही है। राष्ट्रीय विकास परिषद ने अपने कुल योजना व्यय की 30 फीसदी राशि इन राज्यों के योजना व्यय में केंद्रीय सहायता के रूप में देने का फैसला कर रखा है। यह राशि अन्य राज्यों को 30 प्रतिशत सहायता और 70 प्रतिशत ऋण के रूप में दी जाती है। जबकि ‘विशेष राज्य’ का दर्जा होने के कारण पूर्वोत्तर राज्यों को 90 प्रतिशत सहायता और 10 प्रतिशत ऋण के रूप में दी जाती है। नब्बे के दशक के आंकड़ों पर नजर डालें तो इस दौरान 60,000 करोड़ रुपए पूर्वोत्तर में ग्रोस फंड ट्रांसफर के रूप में आए जोकि इन राज्यों का आकार और आबादी देखते हुए एक बड़ी राशि है। सवाल है कि इतनी बड़ी राशि आखिर जाती कहां है? पूर्वोत्तर राज्यों के मुख्यमंत्री राज्य की योजना की राशि बढ़वाने के लिए नई दिल्ली का चक्कर लगाने में जरा भी आलस्य नहीं करते, लेकिन दूसरी ओर वे यह सुनिश्चित नहीं करते कि इस राशि का उपयोग अपने-अपने राज्य में सड़क यातायात, बिजली संयंत्र आदि बुनियादी सुविधाओं के निर्माण में हो। नगालैंड और मणिपुर में तो इस राशि का एक बड़ा हिस्सा उग्रवादियों के खजाने में भी चला जाता है। असम के पहाड़ी जिले कार्बी आंग्लोंग और डिमा हासाउ का भी यही हाल है, जहां स्वायत्तशासन की व्यवस्था है। लेकिन यह अलग किस्सा है और कोशिश करने पर इसमें स्थिति सुधर सकती है।

जो बात ज्यादा चिंताजनक है और जहां सुधार के आसार बिल्कुल नजर नहीं आते वह है सभी पहाड़ी राज्यों में सरकारी तंत्र पर अनाप-शनाप खर्च होना। असम को छोड़कर पूर्वोत्तर के अन्य सभी राज्यों की आबादी 8 लाख से तकरीबन 25-30 लाख के बीच है। लेकिन इतनी कम आबादी पर शासन (या कल्याण योजनाएं?) चलाने के लिए इतने अधिक सरकारी कर्मचारी रखे गए हैं कि अन्य राज्य कल्पना भी नहीं कर सकते। यदि एक औसत परिवार पांच लोगों का माना जाए तो हम कह सकते हैं कि नगालैंड में हर तीन परिवारों पर एक सरकारी कर्मचारी नियुक्त है। असम को छोड़कर सभी पूर्वोत्तर राज्यों का यही हाल है। नगालैंड में 17 लोगों पर 1 सरकारी कर्मचारी है, मिजोरम में 20 पर, त्रिपुरा में 29 पर, मणिपुर में 31 पर और अरुणाचल प्रदेश में 37 पर एक सरकारी कर्मचारी है। जबकि करीब तीन करोड़ की आबादी वाले असम में 105 लोगों में से कोई एक ही इतना भाग्यवान है जिसे सरकारी नौकरी मिल पाई है।

असम के दो पहाड़ी जिलों का भी यही हाल है जहां स्वायत्तशासन की व्यवस्था है। यही कारण है कि इन पहाड़ी राज्यों में कोई उद्योग धंधा, व्यवसाय-वाणिज्य नहीं होने के बावजूद जबर्दस्त समृद्धि आई है। क्षेत्र के सबसे बड़े शहर गुवाहाटी के महंगे माल, होटलों, अस्पतालों और स्कूलों में इस धनाढ्य सरकारी अमले की अनुपात से अधिक उपस्थिति सहज ही नजर आ सकती है। यह भारी-भरकम सरकारी अमला संख्या में जितना आगे है, कार्यकुशलता में उतना ही पीछे है। अनावश्यक रूप से सरकार का आकार बढ़ाते जाने का नतीजा यह हुआ है कि नौकरशाही बिल्कुल निकम्मी हो गई है और विकास योजनाओं का पैसा काम में नहीं लग पा रहा है। 

पूर्वोत्तर के पहाड़ी राज्यों के राजनेताओं ने इसे एक सिद्धांत के तौर पर अपना लिया है कि सारी आबादी को रोजगार देने का दायित्व सरकार का है और इसका एकमात्र तरीका सरकारी नौकरियां देना है। बुनियादी ढांचे का विकास कर निजी पूंजी के निवेश का वातावरण बनाना ताकि यहां की अर्थव्यवस्था आगे बढ़े और नए उत्पादक रोजगार उत्पन्न हों – इसे एक फिजूल का विचार मानकर अस्वीकार कर दिया जाता है। आंकड़े दिखाते हैं कि राष्ट्रीय औसत से अधिक केंद्रीय राशि पाने वाले पूर्वोत्तर के राज्यों की वृद्धि दर औसत से कितनी पीछे है। पिछले पांच दशकों में असम का प्रति व्यक्ति शुद्ध राज्य घरेलू उत्पाद (एनएसडीपी) 6288 रुपए था, जबकि राष्ट्रीय औसत 9725 रुपए था। मणिपुर, मेघालय और त्रिपुरा का भी यही हाल था। सिर्फ नगालैंड, अरुणाचल प्रदेश और मिजोरम के आंकड़े राष्ट्रीय औसत को छूते हुए कुछ आगे निकले हुए हैं। 

पूर्वोत्तर के पहाड़ी राज्यों की अर्थव्य़वस्था सरकारी बजट के इर्द-गिर्द घूमती है। किसी परियोजना के समय पर क्रियान्वयन के द्वारा क्षेत्र के स्थायी विकास को सुनिश्चित करने की बजाय यहां ऐसी परियोजना को एक दुधारू गाय समझा जाता है और उसके चार थनों को ठेकेदार, नौकरशाही, राजनेता और उग्रवादी आपस में बांट लेते हैं।

‘विजन 2020’ में कहा गया है कि पूर्वोत्तर राज्यों में विकास के लाभ को निम्नतम स्तर तक पहुंचाने के लिए ‘कोई एक हरित क्रांति’ की जरूरत होगी। हजारों गहरे नलकूप बैठाकर धान की खेती का नवीकरण, छोटे चाय के खेत, रबर की खेती जैसे अभिनव कदमों से उपजाऊ जमीन वाले असम प्रदेश में जहां इस तरह की हरित क्रांति के लाने के कुछ प्रयत्न हुए हैं, वहीं पूर्वोत्तर के पहाड़ी प्रदेश अब तक इस तरह के कृषि आधारित विकास से कोसों दूर हैं।

शुक्रवार, 1 मार्च 2013

थाईलैंड यात्रा : कुछ बिखरे विचार


किसी भी चीज को देखने के लिए एक निश्चित दूरी का होना बहुत जरूरी है| मान लीजिए आपको मैं एक कलम दिखाता हूं और आपकी आंखों के बिल्कुल पास ले जाकर पूछता हूं कि बताएं कि यह किसी कंपनी का कलम है| निश्चित है कि आप कंपनी का नाम पढ़ नहीं पाएंगे| यही बात देश पर भी लागू होती है| जब आप देश के अंदर होते हैं तो बहुत सारी बातें आपकी नजरों में नहीं आतीं| आप उन्हें रोजमर्रा की बातें मानकर उनकी ओर ध्यान नहीं देते| लेकिन जब आप देश से थोड़ी दूर चले जाते हैं तो विभिन्न देशों के लोगों के बीच भारतवासियों को देखकर उनकी खूबियों और खामियों का आपको पता चलता है| मसलन, भारतीय हर कहीं कतार को तोड़ता हुआ और दूसरों को पीछे छोड़कर आगे बढ़ने की तिकड़म करता हुआ मिलेगा| इस बात से भारतीय हर कहीं सहज ही पहचान में आ जाता है| यह बात भारत में रहते हुए जितनी नहीं कचोटती विदेश जाने पर विभिन्न देशों के नागरिकों के बीच सिर्फ भारतीयों को ऐसा करते हुए देखकर ज्यादा कचोटती है| 

थाइलैंड में वैसे तो हमारी त्वचा का रंग देखकर ही वहां के लोगों को समझ में आ जाता है कि हम भारत से हैं| उनकी भाषा के दूसरे शब्द भले समझ में न आए लेकिन इंडिया शब्द समझ में आ ही जाता है और हम समझ जाते हैं कि वे हमारे बारे में ही बात कर रहे हैं| भारतवासी को थाई भाषा में साओ इंडिया कहते हैं| जापानियों का समय अनुशासन काफी प्रसिद्ध है| लेकिन थाइलैंड में देखा कि थाई लोग समय के अनुशासन में किसी से पीछे नहीं हैं| पिछली बार जब मेरे कारण एक मिनी बस वाले को विलंब हो गया तो वह अपनी कंपनी के मैनेजर से थाई भाषा में बात कर देर होने की कैफियत दे रहा था| बार-बार इंडिया शब्द आने के कारण हमने अनुमान लगाया कि वह यह कह रहा होगा इन दो इंडियनों के कारण देर हो गई - आप तो जानते ही हैं ये लोग लेट करते ही हैं| मिनी बस में सिर्फ मैं और मेरा मित्र भी भारत से थे| हमारे कारण सभी को आधा घंटे की देर हो गई थी|

वहां जब कोई पूछता है कि आप कहां से हैं और हम कहते हैं इंडिया से तो उसकी प्रतिक्रिया आम तौर यही होती ‘ओ, इंडिया इज ए बिग कंट्री’| शुरू में अच्छा लगता है लेकिन जब बाद में देखते हैं कि सभी यही बात कहते हैं और कोई भी भारत की दूसरी किसी खूबी की प्रशंसा नहीं करता तो लगता है उनके दिल में भारत के लिए कोई खास सम्मान नहीं है| जबकि हम उम्मीद करते हैं कि एक बौद्ध धर्मावलंबी देश होने के नाते भारत के प्रति उनका विशेष लगाव होना चाहिए था| लेकिन वैसा कोई लगाव उनकी देहभाषा से से प्रकट नहीं होता| भारत की बनिस्पत कोरियन पर्यटकों का थाई दुकानदारों की नजर में विशेष सम्मान होता है| कोरिया एक बौद्ध धर्मावलंबी धनी देश है और वहां की मुद्रा थाई मुद्रा बाट की तुलना में काफी मजबूत है| इसलिए हवाई अड्डे पर लौट रही कोरियाई युवतियों के बैग थाई सामानों से पटे रहते हैं| भारतीयों की रुचि सिर्फ उन्हीं चीजों में रहती है जिनकी कीमत भारत की बनिस्पत वहां काफी कम है| मसलन फ्लैट टीवी और लैपटाप|

थाईलैंड की आर्थिक प्रगति को कोई भी नजरंदाज नहीं कर सकता| माना कि थाईलैंड को कभी उपनिवेश नहीं बनना पड़ा जबकि इसके पड़ोसी बर्मा, मलेशिया और सिंगापुर सभी विदेशी शासन के अधीन रहे| लेकिन फिर भी भारत के असम की तरह ही थाईलैंड को भी कई बार बर्मी हमलावरों ने तहस-नहस किया| आर्थिक प्रगति का अनुमान लगाने के लिए यह उल्लेखनीय है कि सड़कों पर खोमचे वाले भी बड़ी शान से अपना व्यवसाय करते हैं और उनके वहां रहने के नियम बने हुए हैं| एक निश्‍चित समय पर वे आते हैं और रात को निश्‍चित समय पर अपना सामान छोटी ट्रकों में लादकर चले जाते हैं| पुलिस के साथ आंखमिचौली का खेल वहां देखने को नहीं मिला| हर दो में से एक खोमचा किसी महिला का है| हर खोमचा एक मोटरसाइकिल से जुड़ा है जिसकी सीट पर बैठकर उसका मालिक व्यवसाय करता है और काम हो जाने के बाद मोटरसाइकिल को चलाकर अपने घर चला जाता है| इन खोमचों पर जूस, समुद्री खाद्य, ड्रिंक्स या काफी मिलती हैजो एक अनुमान के अनुसार शाम तक अच्छा-खासा व्यवसाय कर लेते हैं| कहने का तात्पर्य यह कि कम-से-कम शहरों में वहां भारत की तरह घोर गरीबी देखने को नहीं मिलती|

एक शहर से दूसरे शहर जाएं तो राजमार्ग के दोनों ओर भूमि के बड़े-बड़े खंडों पर कोरियाई और जापानी कंपनियों के कारखाने दिखाई देते हैं| लगता है थाई सरकार ने इन कंपनियों को उद्योग लगाने के लिए ये भूखंड उपलब्ध कराए हैं| बिजली की आपूर्ति को भी कभी ठप होते नहीं देखा| थाईलैंड का आर्थिक विकास मात्र पिछले तीन दशकों की कहानी है| विदेशी पूंजी और आधुनिक तकनीक - ये दो ही कारक इसके पीछे समझ में आए| आधुनिक विकास की कुंजी पूंजी, बिजली और आधुनिक तकनीक है - इस मंत्र को हृदयंगम करके थाईलैंड ने ऊंची विकास दर हासिल की जिसके नतीजे अब किसी सैलानी की आंखों से भी छुपे नहीं छुपते| 


पर्यटक कैसे-कैसे

थाईलैंड ने पर्यटन के क्षेत्र में चौंकाने वाले नतीजे हासिल किए हैं| इसकी सकल विकास दर का एक महत्वपूर्ण हिस्सा आज पर्यटन से आता है| आज सारे विश्‍व का पर्यटक थाईलैंड आता है और इसकी आर्थिक उन्नति में अपना योगदान देता है| अलग-अलग देशों के पर्यटकों को देखना मुझे किसी प्राकृतिक दृश्य की छटा को देखने से ज्यादा मजेदार लगा| यूरोपियन देशों के पर्यटक मुख्यतः सेक्स, सस्ती शराब और खाने के लिए थाईलैंड का रुख करते हैं| चीनी पर्यटक बड़े-बड़े झुंड में पर्यटन के लिए निकलते हैं| ऐसे समूह में बड़े-बूढ़े भी होते हैं, युवक-युवतियां होते हैं और बच्चे भी होते हैं| इनकी रुचि यूरोपियन पर्यटकों से भिन्न होती है| बहुत कुछ भारतीयों से मिलती-जुलती| ये लोग प्राकृतिक दृश्यों का मजा लेते हैं और तस्वीरें खींचते हैं| भाषा की समस्या चीनी पर्यटकों के लिए एक बड़ी समस्या होती है इसीलिए वे कदाचित ही अपने समूह से बाहर निकलते हैं| वैसे भी थाईलैंड में अंग्रेजी के ज्ञान के स्तर की यदि भारत से तुलना करें तो वह काफी नीचे है| विदेशी लोग जिन इलाकों में रहते हैं वहां से यदि आप बाहर निकल आएं तो भाषा आपके लिए एक बड़ी समस्या बन जाती है| फिर भी लगभग हर थाई नागरिक अंग्रेजी के बुनियादी शब्दों से परिचित होता है इसलिए काम चल जाता है| ऐसा इसलिए है कि अंग्रेजों का उपनिवेश नहीं होने के बावजूद थाईलैंड में अंग्रेजी एक विषय के रूप में पढ़ाई जाती है| 


साफ-सफाई 

थाई लोगों का सफाई प्रेम सहज ही आंखों को आकर्षित करता है| भारत के सार्वजनिक स्थानों से थाईलैंड की साफ-सफाई की तुलना ही नहीं है| साफ-सफाई के प्रति एक तरह से पूरा थाई राष्ट्र समर्पित है| वहां के सार्वजनिक स्थल भी इतने साफ-सुथरे रहते हैं कि भारत में बहुतों के घर और दफ्तर भी नहीं रहते| सार्वजनिक स्थलों की सफाई के बारे में एक घटना का उल्लेक करना चाहूंगा| मेरे होटल की खिड़की से पास के स्काईट्रेन (खंभों के ऊपर से होते हुए शहर के बीच से गुजरने वाली ट्रेन) का स्टेशन साफ नजर आता था| सुबह-सुबह देखा कि एक महिला स्टेशन की सीढ़ियों और रैलिंग पर रगड़-रगड़ कर हाथ से पोंछा लगा रही है| इस तरह हाथ से एक सार्वजनिक स्थल पर पोंछा लगाना देखना एक भारतीय के लिए हैरत में डालने वाली घटना थी| क्योंकि हमारे यहां भी सफाई कर्मचारी पोंछा लगाते हैं लेकिन स्टेशनों की रैलिंग आदि को हाथ से साफ करते कभी नहीं देखा| सफाई के प्रति प्रेम के कारण ही वहां कई तरह के झाड़ू मिलते हैं जिनसे आप कम मेहनत और समय खर्च कर ज्यादा सफाई कर सकते हैं| इन तरह-तरह के झाड़ुओं तथा सफाई करने के अन्य उपकरणों को अपनी ट्राली पर लादकर बेचने वाले आपको बैंकोक शहर में आसानी से नजर आ जाएंगे| ये लोग अपने सामान बेचने के लिए छोटे लाउड स्पीकर का इस्तेमाल करते हैं| लाउडस्पीकर की बात चली तो यह भी बता दें कि बैंकोक में कई भिखारियों को भी लाउड स्पीकर पर गाना गाकर भीख मांगते देखा था| हालांकि वहां भिखारियों की संख्या नगण्य थी|