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Journalist and writer, Writes on Northeast India, Bangladesh, Myanmar

मंगलवार, 31 जुलाई 2012

कोकराझार से पूर्वोत्तर को समझें

अचानक असम के कोकराझार में हिंसा का दावानल क्यों फैल गया? पिछली 19 जुलाई को दो मुसलिम छात्र नेताओं पर गोलियां चलाकर हमला किया गया, लेकिन वे बच गए। शायद इसकी प्रतिक्रिया के रूप में ही दूसरे दिन पूर्व उग्रवादी गुट बीएलटी (बोडो लिबरेशन टाइगर्स) के चार कैडरों को मार डाला गया। इलाके में सांप्रदायिक हिंसा फैलाने के लिए इतना ही काफी था। जबकि राज्य सरकार को अच्छी तरह मालूम था कि बोडो स्वायत्त इलाके में सुरक्षा बलों की भारी कमी है और यदि कैसी भी हिंसा फैल जाए, तो उसे रोकना वहां उपलब्ध सुरक्षा बलों के लिए असंभव है। यही हुआ भी।

सवाल है कि यह तनाव कितने दिनों से वहां पनप रहा था। मौजूदा तनाव अलग बोडो राज्य की मांग के इर्द-गिर्द सिमटा हुआ है, जिसे लेकर 2003 में अस्तित्व में आए स्वायत्तशासी बीटीएडी (बोडो क्षेत्रीय स्वायत्तशासी जिले) इलाके में विभिन्न समुदाय गुटों में बंटे हुए हैं। सभी बोडो संगठन और राजनीतिक पार्टियां जहां बोडोलैंड के नाम से अलग राज्य की मांग कर रही हैं, वहीं विभिन्न गैर-बोडो समुदाय गैर-बोडो सुरक्षा मंच के बैनर तले संगठित होकर हाल के करीब तीन महीनों से बोडोलैंड की मांग का विरोध करने लगे हैं।

असम के जनजाति बहुल इलाकों में ऐसा बहुत कम देखा गया है कि वर्चस्व वाली जनजाति के खिलाफ कोई दूसरा समुदाय इस तरह मुखर रूप से उठ खड़ा हो। इससे पहले हमने राभा हासंग नामक स्वायत्तशासी इलाके की मांग करने वाले राभा समुदाय के खिलाफ भी लोगों को एकजुट होते देखा है। अलग डिमाराजी राज्य की मांग करने वाले डिमासा समुदाय के खिलाफ भी विभिन्न गैर-डिमासा समुदायों का आंदोलन डिमा हासाउ जिले में हो चुका है। मगर इस तरह का घटनाक्रम नई परिघटना है।

बोडो क्षेत्रीय प्रशासनिक जिलों में गैर-बोडो समुदायों द्वारा स्वायत्तशासी प्रशासन के विरुद्ध भेदभाव का आरोप लगाना, और बोडोलैंड की मांग का विरोध करना, वहां विभिन्न बोडो संगठनों को नागवार गुजरा है। और इसके कारण विगत कुछ दिनों से वहां बोडो और मुसलिम आबादी के बीच तनाव बढ़ रहा था।

कहा जा रहा है कि बीटीएडी इलाके में फैली हिंसा दो समुदायों के बीच फैली हिंसा है। यह बात सच है और नहीं भी। सच इस मायने में है कि ताजा हिंसा मुख्यतः बोडो और मुसलमान समुदायों के बीच ही है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि बाकी समुदायों के साथ बोडो समुदाय के रिश्ते पर्याप्त रूप से मधुर हैं। इस समय कोच राजवंशी और आदिवासी समुदायों के गांवों पर हमला नहीं किया गया। इसके कई कारण हो सकते हैं।

लेकिन इतना दावे के साथ कहा जा सकता है कि बीटीएडी में कोई भी गैर बोडो समुदाय अपने आपको सुरक्षित महसूस नहीं करता। बीटीएडी में पड़ने वाले एक अन्य जिले उदालगुड़ी में ही 2008 में इसी तरह की हिंसा फैली थी, जिसमें अल्पसंख्यक और बोडो समुदाय आमने-सामने थे। लेकिन वहां अन्य समुदाय भी आज तक भय के माहौल में जी रहे हैं। इसका प्रमाण है विभिन्न समुदायों का धीरे-धीरे आसपास के शोणितपुर, दरंग, कामरूप आदि जिलों में जाकर बस जाना।

बोडो स्वायत्तशासी क्षेत्र में इस समय जो समस्या दिखाई दे रही है, वह सिर्फ वहां की समस्या नहीं है। बल्कि इस समस्या में पूर्वोत्तर के अधिकतर हिंसाग्रस्त इलाकों को दर्पण की तरह देखा जा सकता है। यह समस्या है, एक-एक समुदाय द्वारा यह सोचना कि उनके लिए अलग प्रशासनिक इकाई नहीं होने पर उनका विकास संभव नहीं है। साथ ही यह भी कि किसी प्रशासनिक इकाई में, भले वह राज्य हो या स्वायत्तशासी क्षेत्र, वहां के बहुसंख्यक समुदाय को ही रहने का अधिकार है और सरकारी संसाधन सिर्फ उसी समुदाय के विकास के लिए खर्च किए जाने चाहिए। समान अधिकार मांगने को तो बिलकुल बर्दाश्त नहीं किया जाएगा।

2003 में बीटीएडी के गठन के लिए हुई संधि में साफ कहा गया है कि स्वायत्तशासी इकाई का गठन बोडो समुदाय के सामाजिक तथा सर्वांगीण विकास के लिए किया जा रहा है। इस तरह इस बात को मान्यता दे दी गई कि किसी एक प्रशासनिक इकाई का गठन किसी एक खास समुदाय के विकास के लिए किया जा सकता है। यह भारतीय संविधान के उस सिद्धांत के खिलाफ है, जो शासन द्वारा किसी भी समुदाय के खिलाफ भेदभाव किए जाने का विरोध करता है। पूर्वोत्तर भारत के विभिन्न समुदाय जब तक इस भाव को नहीं त्यागते कि किसी दूसरे समुदाय के साथ मिल-जुलकर रहना संभव नहीं है, तब तक बोडो आबादी वाले इलाकों में ही नहीं, बल्कि पूर्वोत्तर के अधिकतर हिंसा जर्जर इलाकों में स्थायी शांति संभव नहीं है।

रविवार, 22 जुलाई 2012

मेरी मातृभाषा क्यों भिखारिन बनी घूम रही है


26 जनवरी, 2010 को अंडमान निकोबार में बोआ सीनियर की 85 वर्ष की उम्र में मृत्यु हो गई और उनकी मृत्यु के साथ ही इस पृथ्वी से मर गई एक और भाषा। एक भाषा की मृत्यु के साथ ही खत्म हो जाता है उनके साथ जुड़ा इतिहास, उसके साथ जुड़ी परंपरा, एक पूरी संस्कृति। हम क्यों किसी भाषा के मरने पर दुख मनाते हैं, वह इसलिए कि लाख विज्ञान ने प्रगति कर ली हो, लेकिन कुछ चीजें वह नहीं बना सकता। जैसे वह एक भाषा नहीं बना सकता। वह प्रकृति प्रदत्त जीव या वनस्पति को फिर से नहीं बना सकता। कल को बाघ इस पृथ्वी से विलुप्त हो जाएंगे तो वह फिर से बाघ नहीं बना पाएगा। गैंडा इस पृथ्वी से विदा हो जाएगा तो वह फिर से गैंडा नहीं बना पाएगा। यहीं आकर मनुष्य की सीमाएं दिखाई देने लगती हैं। जो चीज प्रकृति ने हमें दी है, हमारी नासमझी से यदि वे खत्म हो जाती हैं, तो हम उन्हें दोबारा नहीं बना सकते।

पृथ्वी पर सैकड़ों भाषाएं विलुप्ति के कगार पर हैं, उनमें से 53 भाषाएं भारत में हैं। अभी हमने दो दिन पहले छापा कि त्रिपुरा की साइमर भाषा बोलने वाले चार ही लोग बचे हैं। इसी तरह ग्रेट अंडमानिज भाषा बोलने वाले बस पांच ही लोग रह गए हैं। दक्षिण अंडमान की जारवा भाषा बोलने वाले 31 लोग रह गए हैं। पूर्वोत्तर में बोली जाने वाली रुगा, ताई नोरा, ताई रोंग और तांगाम भाषा बोलने वालों की संख्या प्रत्येक की सौ से ऊपर नहीं है।

भाषा कैसे मरती है? भाषा तब नहीं मरती जब उसके बोलने वाले सभी लोग मर जाते हैं। भाषा तब मरती है जब उसके बोलने वालों की नई पीढ़ियां अपनी भाषा का इस्तेमाल बंद कर देती हैं। मैं अपने सामने एक भाषा को मरते हुए देख रहा हूं। और अफसोस यह है कि यह भाषा मेरी अपनी मातृभाषा राजस्थानी है। राजस्थान या सारे भारत के बारे में नहीं कह सकता लेकिन असम, बिहार और प. बंगाल में हमने देखा है कि राजस्थानी परिवारों में नई पीढ़ी ने राजस्थानी बोलना छोड़ दिया है। राजस्थानी बोलना छोड़ने का नई पीढ़ी का यह निर्णय उसका अपना नहीं है। यह निर्णय उस पर थोपा गया है। उससे पहले की पीढ़ी यानी हमारी पीढ़ी ने नई पीढ़ी के साथ राजस्थानी भाषा में बात करना बंद कर हिंदी को अपना लिया। इस तरह नई पीढ़ी राजस्थानी से बिल्कुल अनजान रह गई।

दैनंदिन की दिनचर्या में इस बात की ओर ध्यान नहीं जाता कि राजस्थानी के बहुत सारे शब्द खुद हमारे जेहन से खत्म होते जा रहे हैं। जब मैं मां से बात करता हूं तब उनसे बात करते समय अचानक यह आभास होता है कि अरे इस शब्द का व्यवहार तो हमने बंद ही कर दिया है। जैसे मां कहती है- "बींटी कठै गई'। अरे बींटी की जगह तो हमने अंगुठी कहना शुरू कर दिया था, लेकिन ध्यान ही नहीं रहा कि बींटी भी एक शब्द है। इसी तरह राजस्थानी बोलते हुए भी हम "बारी' की जगह खिड़की, "धोळा' की जगह सफेद, "बाणच' की जगह फल बोलने लग गए। बो सीनियर की उस पीड़ा को मैं कभी-कभी महसूस करने की कोशिश करता हूं कि आप अपनी भाषा बोलने वाले अकेले व्यक्ति हैं, आप चाहकर भी अपनी भाषा में किसी से बात हीं कर सकते। क्या राजस्थानी जैसी जनभाषाओं का भी एक दिन यही हश्र होना है?

मैथिली और भोजपुरी से यदि तुलना करें तो मुझे लगता है कि सबसे कम काम राजस्थानी को आगे बढ़ने के लिए हुआ है। राजस्थानी को साहित्य अकादमी ने काफी पहले से मान्यता दे रखी है, लेकिन इसे संविधान की आठवीं अनुसूची में स्थान प्रप्त नहीं है। राजस्थानी भाषा को जो भी चाहने वाले हैं, वे बैठकों-सभाओं- व्यक्तिगत बातचीत में इस बात पर आक्षेप करते हैं कि भारत सरकार ने राजस्थानी को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल न करके भारी अन्याय किया है। लेकिन मैं सोचता हूं कि संविधान के अंतर्गत मान्यता नहीं मिली ठीक है, लेकिन क्या हमने अपने दिल में अपनी भाषा को मान्यता दे रखी है? मैं कुछ बिंदुओं पर ध्यान दिलाना चाहूंगा।

(1) संविधान की मान्यता से राजस्थानी को अपने आप किसी भी प्रांत की मान्यता प्राप्त भाषा का दर्जा नहीं मिल जाएगा। राजस्थानी की बात कहने वाले जान-बूझकर इस तथ्य से आंखें मूंदे रहते हैं कि राजस्थान में राजस्थानी को लेकर आम सहमति नहीं है। राजस्थान में शेखावाटी अंचल की मातृभाषा राजस्थानी है। एक-दो और भी इलाके होंगे, जो राजस्थानी को मान्यता देने के पक्ष में हो सकते हैं। लेकिन उन्हें छोड़कर राजस्थान के बाकी इलाके में राजस्थानी को लेकर कोई उत्साह दिखाई नहीं देता। 
(2) जहां तक मेरी जानकारी है राजस्थान मेंं कहीं भी राजस्थानी भाषा शिक्षा का माध्यम नहीं है। क्या कभी इसकी मांग की गई? मेरी जानकारी में कभी ऐसी मांग गंभीरतापूर्वक नहीं उठाई गई। इसकी हम यहां असम या पूर्वोत्तर के अन्य राज्यों में दिखाई देने वाले भाषा प्रेम से तुलना करते हैं, तो हमें साफ दिखाई देने लगता है कि राजस्थानी को सबसे पहले उसके बेटों ने ही घर से निकाला है, तभी वह केंद्र सरकार की गलियों में भिखारिन बनी घूम रही हैऔर आठवीं अनुसूची में शामिल किए जाने के लिए याचना कर रही है। 
उदाहरण के लिए हम मेघालय के एक इलाके में बोले जाने वाली खासी भाषा की बात लें। आप शिलोंग जाएं तो आपको सार्वजनिक स्थानों पर लगे नामपट्टों पर खासी भाषा का वर्चस्व दिखाई देगा। खासी भाषा के कई-कई अखबार निकलते हैं, यह भाषा स्कूलों में पढ़ाई का माध्यम भी है, विधानसभा और सरकारी कामकाज में इसे मान्य प्राप्त है। यह संविधान की आठवीं अनुसूची में नहीं है, लेकिन इससे इसकी प्रगति में कहीं रुकावट नहीं आ रही है। दूसरी ओर राजस्थानी भाषा है, जो आठवीं अनुसूची के लिए तो लड़ रही है लेकिन राजस्थान की राजधानी में कहीं भी उसका अस्तित्व महसूस नहीं होता है। भाषा आपकी जबान पर ही नहीं रहेगी तो आठवीं अनुसूची में स्थान दिलाकर क्या होगा। यह वैसे ही होगा जैसे कोई अपनी मां को घर से निकाल दे और सरकार से उसे पदमश्री देने की मांग करे।

बुधवार, 18 जुलाई 2012

नारी को उपदेश

गुवाहाटी कांड में प्याज के छिलकों की तरह एक के एक बाद परतें उतर रही हैं। इस घटना का एक पहलू है पुरुष प्रधान समाज में आम लोगों की मानसिकता का उजागर होना। जब से यह घटना हुई है कुछ लोगों की जबान पर एक सवाल बार-बार सुनने को मिल रहा है कि वह लड़की या औरत कौन थी? उसका नाम क्या था? राष्ट्रीय मीडिया पर पीड़ित लड़की का नाम उजागर होने के बाद जांच के लिए असम आई अलका लांबा नामक सामाजिक कार्यकर्ता की काफी किरकिरी हुई है। लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर लोगों को पता नहीं कि असम में पीड़ित लड़की का नाम न केवल एकाधिक मीडिया हाउसों में आया है बल्कि प्रिंट मीडिया के कई तथाकथित खोजी पत्रकारों ने उस लड़की के बारे में सूचनाएं खोद निकालने में इतनी मेहनत की जितनी उन लोगों ने अपने कैरियर में इससे पहले अन्य किसी समाचार के लिए नहीं की होगी।


इन खोजी पत्रकारों ने उक्त लड़की के मां-बाप, उसके रोजगार, उसके पति, वह किसलिए बार में गई थी, उसका चरित्र कैसा है - ये सारी बातें सविस्तार प्रकाशित की है। केवल इसी लड़की के बारे में ही नहीं, देखा गया है कि राज्य में कई समाचार पत्र यौन उत्पीड़न या बलात्कार आदि की पीड़ित स्त्री की पहचान को गुप्त रखने को महत्वपूर्ण नहीं मानते। किसी भी तरह के नियम और नैतिकता को नहीं मानने की प्रवृत्ति की पराकाष्ठा 9 जुलाई को जीएस रोड कांड का टीवी पर प्रदर्शन था।


इन दिनों देखा गया है कि स्थानीय मीडिया पर - जिसमें प्रिंट और इलेक्ट्रानिक दोनों ही शामिल हैं - नैतिकतावादी बहस और भाषणों की झड़ी-सी लग गई है। लोग राज्य में शराब के अधिक प्रचलन, स्त्रियों के पहनावे और रात में लड़कियों के बाहर निकलने आदि पर ज्यादा ही नैतिकतावादी भाषण देने लग गए हैं, जिसका लब्बोलुवाब यह होता है कि हाय अपना परम नैतिक समाज आज किधर जा रहा है। ऊपर जिन विषयों का उल्लेख किया गया है उन पर बहस और चर्चा हो इस पर किसी को आपत्ति नहीं हो सकती। लेकिन चूंकि इस चर्चा के लिए विचारोत्तेजना का कारण बना है जीएस रोड कांड, इसलिए यह मानने का कारण है कि ऐसी चर्चाएं शुरू करने वालों की मानसिकता अमूमन इस तरह की होती है - ऐसे परिधान पहनेगी तो ऐसे कांड करने वालों का क्या दोष, रात को ये लड़कियां क्या करने को बार में जाती हैं, हमारा समाज आधुनिकता की दौड़ में जिस तरह भाग रहा है उसका यही परिणाम होना था, आदि। हम फिर कहते हैं कि ऐसी चर्चा गलत नहीं है, लेकिन इस विशेष समय में इस दिशा में चिंतन करना उसी तरह गलत है जिस तरह किसी व्यापारी के यहां डकैती हो जाए और उसी समय कहा जाए कि सारी तो ब्लैक मनी है थोड़ी-सी डकैती में चली गई तो क्या हुआ। यह एक तरह से डकैतों का पक्ष लेने के समान है। नैतिकतावादी दिशा में चिंतन करने वाले इस लिहाज से समाज का बहुत बड़ा अहित करते हैं कि वे समाज में हर हालत में कानून और व्यवस्था के बने रहने के महत्त्व को कम करते हैं।


रात को महिलाओं के घूमने और उपयुक्त रूप से वस्त्र पहनने की बात चली तो बताते चलें कि (उदाहरण के तौर पर) दुबई शहर की स्थानीय अरब महिलाएं बुरका पहनकर ही बाहर निकलती हैं लेकिन वहां विदेशियों की संख्या 90 फीसदी है जो लोग बहुत ही कम कपड़ों में दिन और रात किसी भी समय सड़कों पर घूमते हैं। लेकिन मजाल है कि कोई भी उन्हें हाथ भी लगा ले। आप अपनी संस्कृति का पालन करें लेकिन यह नहीं भूलें कि जिस देश में महिलाएं डर के मारे रात को घर से नहीं निकल पाती हों वहां संस्कृति, परंपरा और नैतिकता की बड़ी-बड़ी बातें करना मिथ्याचार के अलावा और कुछ नहीं। जो लोग नारी के वस्त्रों और उसके रात को बार में जाने के औचित्य पर चर्चा कर रहे हैं क्या वे इस बात की गारंटी देते हैं कि अधिक वस्त्र पहनने और रात को घर से बाहर नहीं निकलने पर इस देश में गुवाहाटी कांड जैसा कांड फिर से नहीं घटेगा?

शनिवार, 14 जुलाई 2012

गुवाहाटी कांड पत्रकार की करतूत थी, शर्म



                               
घटना सोमवार रात की थी। सभी अखबार छप चुके थे, चैनलों का प्राइम टाइम खत्म हो चुका था इसलिए कोई खास नोटिस नहीं लिया गया। बुधवार के स्थानीय अखबारों में घटना के बारे में छपा, कोई खास नोटिस नहीं लिया गया। शुक्रवार तक घटना के वीडियो क्लिपिंग्स यू ट्यूब पर आ गए और सारा देश जैसे अचानक नींद से जागा। अमिताभ से लेकर सोनिया तक सबने घटना पर थू-थू की। पुलिस ने बुधवार से ही कार्रवाई शुरू कर दी थी। एक के बाद एक आरोपियों को पकड़ने का सिलसिला शुरू हो गया था और शुक्रवार तक चार आरोपी पुलिस की गिरफ्त में थे। लेकिन वह युवक अब भी पुलिस की गिरफ्त से बाहर है, जो बढ़-चढ़कर घटना के वक्त बोल रहा था, यहां तक कि उसने मीडिया को बाइट्‌स भी दिए। कहीं छपा है कि उसे बचाने में युवक कांग्रेस के एक नेता का हाथ है। सबसे शर्मनाक बात है इस घटना में एक पत्रकार का हाथ होना जिसने आरोपों के अनुसार सारी घटना की साजिश रची।
मीडिया की थू-थू

जब सारे देश के लोग इस बात पर आश्चर्य व्यक्त कर रहे थे कि आखिर जीएस रोड कांड के घटनास्थल पर एक टीवी चैनल की टीम इतनी जल्दी कैसे पहुंच गई, उन लोगों ने लड़की को बचाने की कोशिश क्यों नहीं की और उस टीवी टीम का सारा प्रयास लड़की का चेहरा दिखाने पर केंद्रित क्यों था, तब उस टीवी कैमरा टीम का वह संवाददाता मन ही मन देश भर के लोगों की मूर्खता पर हंस रहा होगा। क्योंकि सारा कांड तो उसी संवाददाता के कारण घटित हुआ, इसलिए उस पत्रकार से लड़की को बचाने की उम्मीद करना सरासर बेवकूफी नहीं तो और क्या है।

                                

अन्ना टीम के सदस्य अखिल गोगोई ने शनिवार को मीडिया के सामने जो फुटेज दिखाए, उसमें जो आवाजें आ रही थीं- उन्हें देखने-सुनने के बाद इस बात में संदेह नहीं रह जाता कि इस कांड को शुरू करने में तरुण गोगोई सरकार के एक मंत्री द्वारा चलाए जा रहे चैनल के संवाददाता का ही हाथ था। उक्त संवाददाता द्वारा कहे गए गंदे शब्दों को यहां उद्धृत करना संभव नहीं है। उस संवाददाता को सरकार गिरफ्तार करती है या बहानेबाजियां करती है, इस पर बहुत हद तक मुख्यमंत्री तरुण गोगोई के बयानों की विश्वसनीयता निर्भर करेगी।

हमने वृहस्पतिवार के ही हमारे अंक में इस बात को लेकर शंका व्यक्त की थी कि आखिर कैमरामैन बदमाशों के चेहरों को कैमरे में कैद करने की बजाए लड़की के चेहरे का फुटेज लेने को इतना लालायित क्यों था? हमने सोचा था कि ऐसा कैमरामैनों के गलत प्रशिक्षण के कारण हुआ होगा। हम वृहस्पतिवार के संपादकीय लेख की कुछ पंक्तियां यहां उद्धृत कर रहे हैं- ""इलेक्ट्रानिक मीडिया या प्रिंट मीडिया के जो फोटोग्राफर हैं, उनकी प्रवृत्ति वैसे लोगों की तस्वीर लेने की होती है, जो अपना चेहरा छुपाना चाहते हैं, यह व्यक्ति के प्राइवेसी या निजत्व के अधिकार का स्पष्ट उल्लंघन है। यदि कोई व्यक्ति अपनी तस्वीर लिए जाने की अनुमति नहीं देता है तो आप उसकी तस्वीर नहीं ले सकते। लेकिन मीडिया ऐसे व्यक्तियों के फोटोग्राफ लेने के लिए अतिरिक्त मेहनत करने को अपने पेशे का एक हिस्सा समझता है।'' अखिल गोगोई द्वारा किए गए खुलासे के बाद यह स्पष्ट हो गया है कि क्यों भीड़ में शामिल शोहदे लड़की के चेहरे पर से बाल हटाने का प्रयास कर रहे थे और कैमरामेन उसके चेहरे को कैमरे में कैद करने के लिए अतिरिक्त मेहनत कर रहा था। सोमवार की घटना ने पीपली लाइव में किए कए व्यंग्य को काफी पीछे छोड़ दिया है और एक संवाददाता के जघन्य अपराध की यह घटना इलेक्ट्रानिक मीडिया के इतिहास में हमेशा शर्म के साथ याद की जाएगी।

क्या यह घटना भी भुला दी जाएगी

इस घटना पर जिस तरह देशभर में थू-थू हो रही है, उससे एक उम्मीद बंधती है। बड़े-बड़े लोग- महिला आयोग की अध्यक्ष, साधारण लोग- इंटरनेट पर टिप्पणियां करने वाले - सभी कह रहे हैं कि सोमवार की रात के दरिंदों को फांसी देनी चाहिए, उम्र कैद होनी चाहिए, नंगा करके उल्टा लटका देना चाहिए। इस पर पुलिस के एक आईजी साहब की बात याद आती है। जब वे कोकराझाड़ में थे, तब एक कथित बलात्कार कांड को लेकर खूब हो-हल्ला मचा। महिलाओं का समूह उनसे मिलने आया और आग्रह किया कि दोषियों को फांसी पर लटका देना चाहिए। मजाकिया आईजी साहब ने कहा कि हां हम कोई मजबूत पेड़ खोज रहे हैं जिसकी डाल पर अपराधी को फांसी दी जा सके। जब पेड़ मिल जाएगा तो फांसी दे दी जाएगी। पुलिस अधिकारी का मजाक अर्थपूर्ण था। इसलिए कि भारत में न्यायिक प्रक्रिया इतनी लंबी, थकाऊ और उबाऊ है कि दोष सिद्ध हो जाने पर भी किसी को सजा दिलवा पाना मामूली बात नहीं है। इसलिए भारत में अपराधी लोग अदालत की सजा से नहीं डरते, वे डरते हैं गिरफ्तारी और पुलिस की मार से। पुलिस वाले और व्यावहारिक बुद्धि वाले नागरिक जानते हैं कि एक बार किसी को गिरफ्तार कर लो और जब तक संभव हो उसकी जमानत मत होने दो बस यही उसकी सजा है। अदालत में उसका अपराध सिद्ध करना और उसे सजा भुगतने के लिए जेल भेजना या फांसी पर लटकाना यह सब भारत में नहीं होता। रोजाना हम अखबारों में औसतन एक बलात्कार कांड की खबर पढ़ते हैं, लेकिन बलात्कार के मामले में सजा सुनाए जाने की खबर कितनी बार पढ़ते हैं?

24 नवंबर, 2007 को लक्ष्मी उरांव नामक महिला को निर्वस्त्र करके गुवाहाटी की एक सड़क पर दौड़ाया गया। घटना पर खूब शोरगुल मचा, देशभर में भर्त्सना का ज्वार उठा। चार युवकों को गिरफ्तार कर अखबारों में उनकी तस्वीर छाप दी गई। लेकिन बाद में क्या हुआ क्या किसी ने कभी इसकी खबर ली? तब ऐसा लगा था कि इस मामले में तो दोषियों का बच पाना मुश्किल ही होगा। लेकिन एक साल बाद यानी नवंबर 2008 में जब हमने इस मामले के बारे में जानकारी लेने की कोशिश की तो हमें बताया गया कि कुल सात मामले इस संबंध में दर्ज किए गए थे, उनमें से सिर्फ एक मामले में चार्जशीट दाखिल की गई। बाकी मामले लटके हुए थे। जिस मामले में चार्ज शीट दाखिल की गई थी, उसमें भी अदालती कार्रवाई कुछ खास आगे नहीं बढ़ पाई थी। (देखें मेरी पहले की पोस्ट 
http://binodringania.blogspot.in/2008/11/blog-post_8666.html )

हमारे देश में एक विचित्र चीज है जांच आयोग। जब किसी मामले पर जनता शोरगुल मचाती है तो जांच आयोग बैठा दिया जाता है, जनता को ऐसा लगता है मानो न्याय हो गया। जांच आयोग को आम तौर पर 15 दिन, 30 दिन, दो महीने का समय अपनी रिपोर्ट सौंपने के लिए दिया जाता है। लेकिन जनता की स्मृति इतनी तेज नहीं होती कि वह 15 दिन पुरानी बात को याद रख सके। तब तक कोई दूसरा मुद्दा सामने आ चुका होता है। जब ऐसे जांच आयोगों की रपट विधानसभाओं में रखी जाती है, तब उस पर होने वाली ठंडी प्रतिक्रिया से आश्चर्य होता है कि क्या यह उसी घटना की जांच रिपोर्ट है, जिसे लेकर लगा था कि यह मुख्यमंत्री की गद्दी लेकर ही छोड़ेगी।

क्या होता है ऐसी जांच रिपोर्टों का? लक्ष्मी उरांव के मामले की रिपोर्ट चार महीने बाद 1 अप्रैल को असम विधानसभा के पटल पर रखी गई और उसके आधार पर राज्य सरकार ने सीबीआई से घटना की जांच करवाने की अनुशंसा की थी। राष्ट्रीय महिला आयोग ने भी अपनी अलग जांच के बाद राज्य सरकार से अनुरोध किया था कि वह मामला सीबीआई को सौंप दे। राज्य सरकार का कहना था कि उसने सीबीआई से मामले की जांच का अनुरोध किया है। बस यहां तक आकर सभी के कर्तव्यों की इतिश्री हो गई। लक्ष्मी उरांव को आज भी न्याय नहीं मिला।

पुलिस का देर से पहुंचना

घटनास्थल पर पुलिस का देर से पहुंचना आज कोई नई बात नहीं है। चिनिया-मंजू का एक चुटकुला याद आता है जिसमें चिनिया थाने में चोरों के आने की सूचना देता है। लेकिन थाने वाले कहते हैं कि अभी कोई सिपाही खाली नहीं है। चिनिया एक मिनट बाद फिर से फोन लगाता है कि अब आने की जरूरत नहीं मैंने सभी चोरों को गोली मार दी है। पांच मिनट में पुलिस की साइरन बजाती गाड़ियां हाजिर हो गईं। लेकिन असम में ऐसे थाने भी हैं, जहां एक दर्जन हत्याओं की घटना की सूचना मिलने के बाद थाने से जवाब मिलता है- ठीक है कल किसी को भेजेंगे। यह घटना चार थानों में बंटे देश के दूसरे सबसे बड़े जिले कार्बी आंग्लोंग की है। वहां डोलामारा नामक स्थान पर उग्रवादियोंे द्वारा सामूहिक हत्याकांड करने के बाद जब थाने पर फोन किया गया तो थाने से यही जवाब मिला। पुलिस बेचारी करे भी क्या। वहां थाने से घटनास्थल तक पहुंचने के लिए कई जिलों से होकर गुजरना पड़ता है।

शनिवार, 7 जुलाई 2012

हीरू दा का निधन और असमिया के आईने में हिंदी





हीरू दा से सबसे पहले कब कहां मिला याद नहीं, लेकिन उनका जिक्र सबसे पहले कांकरोली, राजस्थान में संबोधन के संपादक कमर मेवाड़ी ने किया था। उन्होंने एक साहित्य सम्मेलन का जिक्र करते हुए कहा था कि आपके यहां से वो आए थे, बिल्कुल दुबले, बिल्कुल साधारण, एक साधारण-सी शर्ट पहने। मैं तुरंत समझ गया कि वे हीरू दा ही होंगे। मैंने कहा- वे हीरेन भट्टाचार्य होंगे। मेवाड़ी जी को भी नाम याद आ गया और वे उनकी साधारणता की असाधारणता के गीत गाने लगे। कोई व्यक्ति अपनी साधारणता को भी चर्चा का विषय कैसे बना सकता है, इसका उदाहरण थे हीरू दा।

एक बार मैं और किशोर जैन उनके घर गए। शायद कोई इंटरव्यू लेने का इरादा था। किशोर जैन ने उनके विषय में कुछ लिखा था, उसे भी वे दिखाना चाहते थे। लिखा हुआ देखकर वे कहने लगे- नाटक करने की क्या जरूरत है। नाटक करिबो ना लागे। जीवन में और साहित्य में वे नाटकीयता और गिमिक्स के सख्त विरोधी थे। चश्मा लाने अंदर गए तो चश्मे का प्रसंग याद आ गया। कहने लगे कि शिवसागर में चश्मा भूल गया था। फिर पीछे-पीछे गाड़ी दौड़ाकर लड़कों ने (कवि सम्मेलन के आयोजकों ने) मोरान में मुझे चश्मा दिया। बुरा भी लगता है लड़कों को लेकर। वे अपने भुलक्कड़ स्वभाव को कोसने लगे।

हमने कहा कि वे अपनी एक-दो कविताएं दे दें हिंदी में अनुवाद कर उनके साक्षात्कार के साथ लगा देंगे। उन्होंने एक कविता निकाल कर दी और कहा-कीजिए, इसका अनुवाद मेरे सामने ही कीजिए। हम दोनों भिड़ गए। हीरू दा की कविताएं छोटी-छोटी होती हैं, भाव भी स्पष्ट होता है, बोधगम्य होती हैं, लेकिन शब्दों के चुनाव में वे काफी सावधान रहते हैं। शब्दों की बात चली तो वे कहने लगे- दिल्ली में एक साइन बोर्ड पर लिखा था ""आम लोगों के लिए नहीं''। तब तक मैं आम का अर्थ एक फल के रूप में ही जानता था। काफी सोचा। आम लोगों के लिए नहीं-क्यों नहीं। फिर आम किसके लिए है। बाद में किसी ने बताया कि आम का मतलब साधारण भी होता है तब बड़ी हंसी आई। उनकी कविताओं में असमिया लोकजीवन से शब्द आते हैं। संस्कृत, तत्सम शब्दों से वे परहेज करते हैं। उन्हें यही डर रहता था कि अनुवादक संस्कृतनिष्ठ और तत्सम शब्दों से भरकर उनकी कविता का रंग-रूप बिगाड़ देंगे। गांव की गोरी अनगढ़ ढंग से लिपिस्टिक लगाएगी तो उसका चेहरा बिगड़ेगा या निखरेगा। एक-एक शब्द पर वे चर्चा करते रहे। - कोई दूसरा शब्द सोचिए- ठीक है बांग्ला का शब्दकोश देख लेते हैं। एक शब्द था ""गोमा आकाश''। बादल छाए आसमान के लिए ये शब्द प्रयुक्त होते हैं। ""गोमा'' के लिए कोई उचित शब्द उस समय नहीं मिला। "मेघाच्छादित' जैसा शब्द देने का तो सवाल ही नहीं था। शाम का वक्त था हमने कवि से विदा मांग ली। बाहर बरामदे में निकले तो देखा कि बादल छाए हुए हैं, मैंने कहा, ""आकाश गोमा हो रखा है।'' कवि हंस दिए।

पिछले साल प्रेस में मिल गए। अपने नए संकलन को लेकर व्यस्त थे। आमुख की सज्जा स्वयं ही डिजायनर के पास बैठकर करवा रहे थे। भाषा, शब्द और वर्तनी को लेकर इतने सजग कि प्रकाशक मित्र दबी जबान में मेरे सामने अपनी खीझ व्यक्त किए बिना नहीं रह सके। काफी कमजोर हो चुके थे। फिर कहा, "चलिए, यह कविता अनुवाद कीजिए जरा।'' उनके साथ बैठकर अनुवाद करना एक अनूठा अनुभव होता था। लेकिन वे यह नहीं पूछते थे कि कहां छपवाएंगे, छपने पर दिखाइएगा। बस एक साथ बैठकर अनुवाद करने का आनंद लेते थे। बाद में कुरेदना उनकी आदत नहीं थी।

प्रकाशक मित्र ने कहा कि अभी चांदमारी में हम काफी पीने गए तो वहां बैयरे ने पहचान लिया। यह सुनकर हाल ही में अस्पताल से निकले कवि हंसने लगे, कहने लगे कि अस्पताल की नर्स भी कह रही थी आपको पहचानती हूं सर। हीरू दा की लोकप्रियता की बात ही अलग है। लेकिन कहीं न कहीं यह असमिया संस्कृति की महानता है जहां जनता अपने साहित्यकारों को अथाह प्यार देती है। भूपेन दा की बात छोड़ भी दें, तो अभी मामोनी रायसम गोस्वामी के निधन पर सारा असम रो पड़ा था। पिछले सप्ताह ही तो एक मंत्री का इंटरव्यू आया था कि वे मुख्यमंत्री नहीं बनना चाहते, हां एक बार असम साहित्य सभा का अध्यक्ष बनने की हसरत जरूर है।
  
साहित्य की समाज में जगह का प्रसंग चला तो ""कभी-कभार'' में अशोक वाजपेयी की लिखी ये पंक्तियां याद आ गईं- ""क्या थे वे सपने? एक तो यही था कि हमारे समय और समाज में साहित्य की जगह और जरूरत बढ़ेगी। हम जानते थे कि हिंदी समाज, जो भी कारण हो, साहित्यप्रेमी समाज नहीं है, पर हमने उम्मीद लगाई थी कि शिक्षा और साक्षरता के विस्तार से साहित्य के पाठक बढ़ेंगे। ऐसा नहीं हुआ ः पढ़ा-लिखा मध्यम वर्ग समृद्धि की अपनी निर्लज्ज चाहत में अपनी मातृभाषा और साहित्य से दूर होता चला गया, जा रहा है। हमारे विश्वविद्यालयों में और अन्यत्र भी हिंदी साहित्य की प्रतिष्ठा कम होती गई है। हालत यह है कि हिंदी अखबारों में ही हिंदी भ्रष्ट हो रही है और उनमें साहित्य के लिए जगह सिकुड़ती जा रही है।''

ऐसा नहीं है कि असमिया समाज में असमिया भाषा के भविष्य को लेकर कम चिंता है और सभी आश्वस्त हैं। यहां भी नई पीढ़ी के असमिया लिखना-पढ़ना नहीं जानने को लेकर गंभीर विमर्श जारी है। लेकिन असमिया में जो स्थिति है उसकी हिंदी से तुलना ही नहीं है। टीवी पर जब दसवीं और बारहवीं के टापर्स के बाइट्‌स आते हैं तो ऐसे बहुतेरे होते हैं जो यह कहते हैं कि हम खाली समय में होमेन बरगोहाईं या रीता चौधरी के उपन्यास या नवकांत बरुवा की कविताएं पढ़कर तरोताजा होते हैं। हिंदी में तो ज्ञानपीठ प्राप्त साहित्यकार को भी टीवी वाले पहचानने से इनकार कर देते हैं। हिंदी की युवा पीढ़ी में दोयम दर्जे के अंग्रेजी उपन्यास मूल अंग्रेजी में या हिंदी अनुवाद के रूप में लोकप्रिय हैं।

मैंने हीरू दा के साथ बैठकर उनकी दो कविताओं में प्रयुक्त असमिया शब्दों के लिए ठीक-ठाक हिंदी प्रतिशब्द खोज लिए। आज भी शाम हो रही थी। हवा में खुनकी बढ़ रही थी। तभी कवि का मोबाइल बज उठा। घर से फोन आया था-दवा समय पर ले ली या नहीं। और हां शाम हो रही है, साथ में भेजी गरम चादर ओढ़ लें। कवि ने झोले से गरम चादर निकाल ली। हंसकर मुझसे कहने लगे- घर वाले चिंता करते हैं। सोचते हैं मैं चादर ओढ़ना भी भूल जाऊंगा। आप ठीक कहते हैं हीरू दा आप भुलक्कड़ नहीं हैं। आप हमारी भावनाओं को पंख लगाना भूल थोड़े जाएंगे।   

(गत 4 जुलाई को कवि हीरू दा का निधन हो गया। वे 80 वर्ष के थे।)

बुधवार, 4 जुलाई 2012

एयरपोर्ट पर तीन मिनट और मीडिया से परहेज



प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी के असम के बाढ़ पीड़ित इलाकों का हवाई सर्वेक्षण करने के बाद गुवाहाटी में मीडिया को ब्रीफ करने का कार्यक्रम था। मुख्यमंत्री सहित असम सरकार के नुमाइंदों के साथ एयरपोर्ट पर ही एक बैठक हुई और इसके बाद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी और मुख्यमंत्री तरुण गोगोई उनके इंतजार में बैठी मीडिया के पास आए। प्रधानमंत्री ने अपने अधिकारियों द्वारा तैयार किया गया एक बयान पढ़ा जिसमें खबर लायक एक ही बात थी कि केंद्र सरकार ने फौरी तौर पर बाढ़ सहायता के लिए पांच सौ करोड़ रुपए मंजूर किए हैं। इस तरह मुश्किल से तीन मिनट में अपना काम निपटा कर मनमोहन सिंह, सोनिया गांधी और तरुण गोगोई बिना पत्रकारों के किसी भी सवाल का जवाब दिए वहां से चले गए।

प्रधानमंत्री के इस व्यवहार ने एक बार फिर यह प्रश्न जेहन में ताजा कर दिया है कि आखिर वे मीडिया के साथ विचारों का आदान-प्रदान करने से इतना परहेज क्यों करते हैं? आखिर वे असम के दौरे पर क्यों आए? यही बताने के लिए न कि असम की विपत्ति के समय नई दिल्ली भी उनके साथ खड़ी है और उन्हें हर तरह की आर्थिक तथा अन्य तरह की मदद देकर उसकी परेशानियां दूर करने के लिए तैयार है! यदि यह सही है तो जनता कोे यह बताने के लिए मीडिया के अलावा उनके पास और कौन सा जरिया है।

कुछ महीनों पहले जब इस बात को लेकर उनकी ज्यादा ही आलोचना होने लगी थी कि वे जनता के साथ सीधे या मीडिया के माध्यम से विचारों का आदान-प्रदान नहीं करते, तब उनका नया प्रेस सलाहकार नियुक्त किया गया। इसके बाद शुरुआत के तौर पर चार चुनिंदा वरिष्ठ पत्रकारों को उन्होंने मुलाकात के लिए बुलाया और उनके साथ लंबा वार्तालाप किया। लेकिन लोगों की यह धारणा गलत निकली कि यह एक शुरुआत मात्र है। वह शुरुआत ही लगता है अंत थी। क्योंकि उसके बाद इस तरह मीडिया के साथ मिलने का कोई कार्यक्रम बाद में नहीं रखा गया।

कहीं बाहर दौरे पर जाने पर हवाई जहाज में अपने साथ गए पत्रकारों के साथ या जहां जाते हैं वहां के स्थानीय पत्रकारों के साथ वार्तालाप के माध्यम से जहां प्रधानमंत्री जनता को यह बता सकते हैं कि सरकार की सोच क्या है, वहीं पत्रकारों के प्रश्नों के माध्यम से जनता की नब्ज भी जान सकते हैं।

इस सरकार की सबसे बड़ी जो कमी अब दिन पर दिन ज्यादा से ज्यादा से खटकने लगी है वह है इसके मुखिया मनमोहन सिंह और सत्ता से दूर रहकर सत्ता संभालने वाली सोनिया गांधी की जनता के प्रश्नों का सामना करने से परहेज करने की प्रवृत्ति। शत्रु को देखते ही रेत में मुंह छिपा लेने वाले पक्षी वाली कहावत इन दोनों पर सटीक बैठती है। हालांकि उन्हें यह समझना चाहिए कि मीडिया शत्रु नहीं है। उल्टे यह उन्हें जनता के साथ संपर्क स्थापित करने का एक अवसर प्रदान करता है। लोकतंत्र में जनता के साथ लगातार सीधे संवाद बनाए रखने का भी अपना महत्त्व है। इसे आप नजरंदाज नहीं करते हुए यह नहीं कह सकते कि हम अपना काम बेहतर तरीके से कर रहे हैं लोग जो सोचते हैं सोचते रहें। आपको अपना नजरिया भी लोगों के सामने लगातार रखते रहना पड़ेगा। लोगों के साथ रिश्ता बनाए रखने के मामले में मुख्यमंत्री तरुण गोगोई माहिर हैं। शायद मुख्यमंत्री का दबाव नहीं होता तो प्रधानमंत्री और यूपीए अध्यक्ष असम का दौरा ही न करते। लेकिन वे कांग्रेस के बुरे समय में लगातार तीसरी बार जीत हासिल करने वाले मुख्यमंत्री को हर तरह से खुश रखना चाहते हैं। हो सकता है एक-दो ही दिन में मुख्यमंत्री प्रेस के प्रतिनिधियों को बुलाकर उस कमी की भरपाई करने की कोशिश करें जो प्रधानमंत्री और सोनिया गांधी के चुप्पे स्वभाव के कारण रह
गई है।

डिब्रूगढ़ के मनोहर वर्मा की टिप्पणी


विनोद रिंगानिया जी ने "शादियों में आडंबर...' का विषय उठाकर फिर समाज की दुखती रग पर हाथ रख दिया है। बहुविवाह के प्रसंग ने तो बड़ी उम्र के "बेचारे' कुंवारों को उदास ही कर दिया। एक अदद पत्नी का जोगाड़ बैठाने में उम्र ढलती जा रही है, वहां बहुविवाह की बात करना गाली जैसा लगता है। ऊंचे संपन्न समझे जाने वाले घरानों को अपनी हैसियत से निचले पायदान पर उतरकर लड़की वालों के यहां प्रस्ताव भिजवाने पड़ रहे हैं। पैसे के बल पर सब कुछ हो जाता तो ऐसी परिस्थितियां क्यों आती? इतना ही नहीं, न चाहते हुए भी समाज अब अंतर्जातीय विवाहों के पक्ष में तैयार होने लगा है। यह परिवर्तन क्या उपायजन्य है? नहीं, लड़कियों के स्थान पर लड़कों की पैदाइश की चाह ही इस दुष्प्रवृत्ति का कुफल है। आज के दिन लड़कियों और उनके अभिभावकों की मानसिकता में भारी बदलाव आया है। अमीर घरानों की चाहत पीछे छूट गई है।

शादियों में आडंबर ने खर्च तो बढ़ाए ही हैं। पूरे समाज की समरसता को भी चोट पहुंचाई है। सब कुछ ठेके पर नाटकीय ठाठ-बाट सज जाते हैं, परिवार के सदस्य म्लान चेहरों पर झूठी मुस्कुराहट के टेटू गुदवाए लकदक पोशाकों में भावहीन पुतले से लगते हैं। जब से पहले की भांति संपर्क बढ़ानेवाले सामाजिक बंधुओं के श्रम-सहयोग की अपेक्षा नहीं रह गई है तब से आत्मीयता का भी अवसान हो गया है। शादी का आयोजन मांगलिक कहलाता तो है, पर कहीं से भी मंगल ध्वनि और यज्ञिक शुभता की सुवास हमारी ग्राह्य-इंद्रियों को सुखद उत्तेजना नहीं दे पाती। मुहूर्त, अमुहूर्त में बदल जाता है। समधियाने की मीठी गालियों और गीतों की रसिकता का स्थान कर्कस आर्केस्ट्रा पर फिल्मी कामुक आइटम-सोंग और उनकी नकल ने ले लिया है।

अब जरा खाने-पीने की तरफ दृष्टि डालते हैं। तरह-तरह के ठंडे-गरम ड्रिंक्स, हाई-टी के नाम पर चाट-पकौड़े, गोल-गप्पे, फलों के कत्तले, खाने में नाना प्रकार के सलाद, मिठाइयां चप, कचौड़ियां, समोसे, चाइनीज अनेकों आकार-प्रकार की रोटियां, दालें, सब्जियां, पुलाव, चावल, कढ़ी, रायता, पापड़, अचार, चीप्स और फिर आइस्क्रीम, क्या नहीं होता? छप्पन भोग की मर्यादा छोटी पड़ गई है, गरिष्ठ पकवानों के शतक सजने लगे हैं। कोई भोजन-भट्ट भी इन सब पकवानों को चखने का पुरुषार्थ नहीं दिखला सकता। लोग दस चीजें भी तबियत से खा लें तो गनीमत समझें। होने को तो बहुत कुछ होता है, परंतु स्वाद और सत्कार दोनों नदारद रहते हैं। सजावटी नकली फूलों की तरह व्यंजन भी सजावटी और नकली से लगते हैं। बची खाद्य-सामग्री का दूसरे दिन तो कोई उपयोग ही नहीं। उपलब्धि के नाम पर एक मेले की सी रेल पेल को वीडियो कैमरे में कैद कर के सहेज लिया जाता है। काश, दस-बीस ही व्यंजन हों पर खाने योग्य हों और साथ में हो आतिथ्य की गरिमा। यह बिना फिजूलखर्ची और आडंबर के हो सकता है। इसलिए कहा गया है-

करिए काज हिसाब से, जासो सुधरे काज।

फीको थोड़े नून ते, अधिक ते खारो नाज।।

कुरीतियों और आडंबर पर नियंत्रण संभव हो सकता है, परंतु प्रारंभ में सादगी के उदाहरण संपन्न और समझदार लोगों को रखने चाहिए। मैं उदाहरण के लिए कहना चाहूंगा कि हमारे यहां डिब्रूगढ़ में मृत्यु-भोज में गरीब-अमीर सभी के यहां एक-सी रसोई बनती है- दिलकुसार, भुजिया, कचौड़ी या दही बड़ा और सब्जी-पूड़ी बस। बड़े-बूढ़ों की पंचायत में बनाए गए इस पचासों वर्ष पुराने मेनू को भंग कर के आडंबर दिखाने का प्रयास अभी तक तो किसी ने नहीं किया। चाहें तो विवाह समारोहों में भी थोड़े हेर-फेर के साथ ऐसा हो सकता है, यदि समाज लोगों पर दबाव बना सके। पूरे समाज की एक सभा बुलाकर निर्णय लिया जाए। निर्णय को प्रचारित किया जाए। फिर समाज की अवहेलना करते हुए जो आडंबर दिखलाए उनका विनम्रतापूर्वक बहिष्कार होना चाहिए। जो नियमों का पालन करे उसको सम्मानित किया जाए।

- मनोहर वर्मा

डिब्रूगढ़

फोन. 9435330298