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Journalist and writer, Writes on Northeast India, Bangladesh, Myanmar

शनिवार, 30 जून 2012

शादियों में आडंबर : चिंतन चालू आहे


रिपोर्टिंग के दौरान अंतर्मुखी होने से काम नहीं चलता। खासकर कहीं बाहर जाने पर। इसलिए ईटानगर में उस आदी जनजाति के युवक से दोस्ती बढ़ाने की गरज से मैंने इधर-उधर की बातें शुरू की। पैसे देने के लिए उसने बटुआ निकाला तो देखा कि किसी महिला की फोटो है। मैंने पूछा- आपका वाइफ? उसने कहा, हां मेरा सबसे प्यारा वाइफ। सबसे प्यारा मतलब! उसने बताया कि उसकी चार पत्नियां हैं। तीन शादियां उसने पिता की इच्छा से की, और यह चौथी शादी अपनी मर्जी से की। उनकी जनजाति में किसी व्यक्ति का मान-सम्मान, रुतबा इस बात से मापा जाता है कि उसके कितनी पत्नियां हैं। कहने की जरूरत नहीं कि उनके यहां बहुविवाह की इजाजत है। लगभग हर समाज में किसी समय पत्नियों और गुलामों की संख्या से आदमी का रुतबा मापा जाता था। बाइबिल और हदीस में ऐसे प्रकरण भरे पड़े हैं, जिनमें एकाधिक पत्नियों और गुलामों की संख्या के साथ आदमी की सामाजिक हैसियत जुड़ी होने के प्रसंग आए हैं। आज लगभग हर समाज में बहुविवाह और गुलाम रखने की अनुमति नहीं है।

इस प्रकरण की याद आई उड़ीसा हाई कोर्ट के अधिवक्ता रमेश अग्रवाल द्वारा शादियों में फिजूलखर्ची पर मेरे लेख की प्रतिक्रिया में फेसबुक पर लगाए गए इस सवाल के कारण कि किसी के पास पैसा है तो अपनी मर्जी से खर्च करने का भी उसे अधिकार है। बाहर से किसी को बोलने का क्या अधिकार है? मुझे अरुणाचल प्रदेश के जनजातीय युवक का प्रसंग इसलिए याद आया कि हमारे अधिकांश क्रिया-कलाप पर सामाजिक नियंत्रण रहता है। लेकिन हम उसके इतने अभ्यस्त हो जाते हैं कि हमें उस सामाजिक श़ृंखला का अनुभव तक नहीं होता। उल्टे हम उस सामाजिक नियंत्रण के अंदर अपने आपको सुरक्षित महसूस करते हैं। आदी जनजाति में रुतबा दिखाने के लिए बहुविवाह की अनुमति है, इसलिए उस कबीले केधनी लोग इस अनुमति का फायदा उठाते हुए शान से एकाधिक विवाह करते हैं और अपने समाज में छाती फुलाकर चलते हैं। क्या हमारे समाज में किसी के पास पैसा हो तो वह बहुविवाह कर सकता है? आप कहेंगे कि यह गैरकानूनी है। लेकिन कानून तो हिंदू धर्म के वर्तमान रीति-रिवाज को देखते हुए बाद में बना है। कल्पना कीजिए कि कल को कानून न भी रहे तो क्या समाज सिर्फ इसलिए बहुविवाह की अनुमति दे देगा कि किसी के पास पैसा है? इन पंक्तियों से हम सिर्फ यह दिखाना चाहते हैं कि किस तरह हमारे क्रिया-कलापों पर सामाजिक प्रतिबंध है और उन्हें धनी और गरीब हर किसी को मानकर चलना पड़ता है। अब सवाल उठता है कि क्या शादियों के अवसर पर होने वाली फिजुलखर्ची और आडंबर समाज के लिए अहितकारी है? इस संबंध में कई तरह के सवाल पूछे जाते हैं।

प्रश्न 1 : आधुनिक अर्थव्यवस्था उपभोग पर निर्भर है। यदि लोगों ने शादियों में खर्च कम कर दिया तो क्या अर्थव्यवस्था धीमी पड़ जाने का खतरा नहीं है?

उत्तर : यह सही है कि आधुनिक अर्थव्यवस्था उपभोग पर निर्भर है। उपभोग मध्य वर्ग या उच्च वर्ग करता है। उच्च वर्ग संख्या में सीमित है, इसलिए अर्थव्यवस्था का सारा उद्यम मध्य वर्ग को तरह-तरह के उपभोगों की ओर आकर्षित करने पर केंद्रित रहता है। आज सिर्फ अर्थव्यवस्था को चलाने के लिए बाजार अनावश्यक और हानिकारक पेय पदार्थों, खाद्य पदार्थों, प्रसाधन सामग्रियों से पटा पड़ा है। बात लोगों के जीवन को ज्यादा आरामदायक बनाने की की जाती है, लेकिन मतलब होता है सिर्फ अपने प्रोडक्ट को मार्केट में ठेलने का। आज शाही शानौ-शौकत से शादियां करवाने वाली कंपनियां बाजार में उतर गई हैं।

इस अनावश्यक उपभोग के दो पहलू हैं। एक है विकसित देशों में होने वाला अनावश्यक उपभोग। वहां गरीब वर्ग नहीं है, या उसे राज्य द्वारा पर्याप्त मदद मिल जाती है, फिर भी अनावश्यक उपभोग प्रकृति द्वारा प्रदत्त संसाधनों पर दबाव पैदा करता है, यहां तक कि पृथ्वी के आने वाली पीढ़ियों के रहने लायक नहीं रहने का खतरा पैदा हो गया है। दूसरा पहलू है, भारत जैसे देश में अनावश्यक उपभोग का। हमारे देश में भले 30 करोड़ का मध्य वर्ग पैदा हो गया हो, फिर भी यहां संसाधनों की कमी है। इसलिए अर्थव्यवस्था को गति देने के नाम पर हम अनावश्यक और संसाधनों को बर्बाद करने वाले (टनों खाना नालियों में बहाया जाना) उपभोग को बढ़ावा नहीं दे सकते। हमारी अर्थव्यवस्था की मुख्य दिशा ज्यादा बचत और उस बचत के पैसे का बुनियादी ढांचे को विकसित करने और उद्योग में निवेश करने की ओर होनी चाहिए।

प्रश्न 2 : क्या आज के युग में सामाजिक नियंत्रण संभव है?

उत्तर : जिन जातियों में जाति पंचायतें आज भी सक्रिय हैं, वहां इस तरह के नियंत्रण आज भी संभव हैं। हमने पिछले सप्ताह गुर्जर पंचायत का जिक्र किया था, जिसने अपनी जाति के अंदर इस तरह के प्रतिबंध लागू किए हैं। इसके अलावा जहां आधुनिक शैली के संगठन सक्रिय हैं, यदि उन्हें पंचायतों जैसी मान्यता हासिल है, तो उनके माध्यम से भी इस तरह के नियंत्रण संभव हैं। याद रखना होगा कि शादियों में आडंबर के विरुद्ध लड़ाई आधुनिक अर्थव्यवस्था की इस समय जो दिशा है उस दिशा के विरुद्ध लड़ाई है। यह उपभोगवाद का आक्रामक प्रचार करने में नियोजित विज्ञापन कंपनियों, विशाल कारपोरेशनों के साथ लड़ाई है। इसके लिए मानसिक तैयारी को भी पर्याप्त महत्त्व देना होगा। उड़ीसा के रमेश अग्रवाल ने जैसा बुनियादी सवाल पूछा है, वैसे सवाल आते रहने चाहिए ताकि हम इस मुद्दे पर अपनी वैश्विक दृष्टि को साफ रख सकें।

बुधवार, 27 जून 2012

प्रमोद शाह की लंबी टिप्पणी : मारवाड़ी संतुलन रखने में चूक गया



विनोद रिंगानिया का लेख "मारवाड़ी को सिर्फ सहन किया जाता है'- विचार हेतु कई बिंदु छोड़ जाता है। वास्तव में इस महत्वपूर्ण विषय पर चर्चा करने से पूर्व कुछ बुनियादी बातों पर चर्चा जरूरी है। यहां यह स्पष्ट कर देना भी उचित समझता हूं कि हर व्यक्ति या समाज की अपनी-अपनी खूबियां और कमियां हुआ करती हैं। उन पर एक संतुलित विवेचना होनी चाहिए, बिना किसी पूर्वाग्रह के।

पहले हम हमारे देश के आर्थिक मनोविज्ञान को समझने की कोशिश करते हैं, तब मारवाड़ी समाज पर आते हैं। हमारा देश मूलत: एक आध्यात्मिक देश है। यहां भोग को नहीं त्याग को महत्व दिया गया है, जो ॠषि-समाज, आत्मा की गहराइयों तक जा चुका था, उसके लिए भौतिकता को प्रधानता देना कोई बड़ी बात नहीं थी। उन्होंने धन पर बहुत चिंतन किया और सदियों तक विचार-विमर्श के पश्चात उसकी सीमा तय कर दी। उन्होंने कहीं भी भोग को नकारा नहीं है। उसके मानदंड तय कर दिए। उन्होंने भोग को अध्यात्म यानी धर्म को आधार दे दिया और सूत्र दिया-धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। यानी धर्म को सर्वोपरि रखते हुए उसको प्रथम स्थान दिया। उसे आधार मानकर अर्थ अर्जित करे और उससे कामनाएं पूरी करते हुए मोक्ष को प्राप्त करे।

हर सभ्यता और संस्कृति को उत्थान-पतन का दौर देखना पड़ता है। इसने भी देखा। प्राकृतिक प्रकोप, महायुद्ध, विवेकहीन आस्था, ज्ञान, एकाधिकार, विशिष्टता और अहंकार इत्यादि अनेक कारणों से देश गुलाम रहा। अंधेरा छा गया, अकर्मण्यता बढ़ी, गरीबी और अशिक्षा ने जकड़ लिया। अनेक भ्रांतियों ने जन्म लिया। एक भ्रांति यह भी फैल गई कि धन व्यर्थ की चीज है। वह यह भूल गया कि किस स्तर आ रहा धन व्यर्थ हो जाता है। वह धन को कोसता रहा, साथ ही लक्ष्मी-पूजा करता रहा। लेकिन पैसे की आलोचना से उसकी जरूरत खत्म नहीं हो जाती। दुनिया का शायद ही कोई व्यक्ति हो जो गरीब रहना चाहता है। जो सही मायने में अध्यात्म में गहरे उतर गए हैं, साधना में लीन हैं, मैं उनकी बात नहीं कर रहा हूं। मगर सवालों का सवाल यह है कि धन की प्राप्ति कैसे करें? उसमें बड़ा आकर्षण है, अत: आदमी गुनाह करने से भी परहेज नहीं करता है। ऐसे लोग हैं जिनकी चाह की कोई सीमा नहीं, तो ऐसे व्यक्ति भी हैं जो केवल अपनी जरूरत पूरी हो जाए, बस उतना चाहते हैं। ऐसे भी व्यक्ति हैं जो धन पाने के लिए कुछ भी करने को तैयार हैं और ऐसे भी हैं जो अपने सिद्धांतों पर कायम रहकर कमाना चाहते हैं। ऐसे लोग भी हैं जो इस भावना से धन इकट्‌ठा किए जा रहे हैं-सब कुछ लिख दे मेरे नाम, भूखों मर जाए देश तमाम या अब वतन आजाद है-लूट सके सो लूट-तो दूसरी ओर ऐसे व्यक्ति भी हैं जो सादा जीवन उच्च विचार में विश्वास रखते हुए कबीर के इस दोहे को चरितार्थ करते हुए जीते हैं-

"साईं इतना दीजिए, जामे कुटुम्ब समाय।

मैं भी भूखा ना रहूं, साधु न भूखा जाय।।

वास्तव में जीवन में संतुलन की आवश्यकता है, इसके लिए धन, साहित्य, संगीत, कला, धर्म, अध्यात्म सभी चाहिए वरना जीवन एकांगी हो जाएगा।

अब उन बिंदुओं पर चर्चा करते हैं, जिन्हें विनोदजी ने अपने उपरोक्त वर्णित लेख में उठाया है।

कम्युनिस्ट व्यवस्था की बात की गई है। न जाने कितने साम्यवादी विचारधारावालाओं को धन के इर्द-गिर्द मंडराते देखा है। उन सारे भोग-विलासों के प्रति उनका रुझान रहा है, जिनके लिए वे पूंजीपतियों को जी-भर कर कोसते रहे हैं। साम्यवाद, समाजवाद, प्रगतिशीलता मात्र नारे साबित हुए।

कालांतर में ऐसा घट गया कि एक हीनभावना हमारे अंदर घर कर गई। हमने धन को आदर देना बंद कर दिया। अत: व्यापारी भी अपने आपको व्यापारी कहने में संकोच करने लगा। एक उद्योगपति या व्यापारी मंच पर बैठा है तो उसके श्रम, व्यापारिक कौशल, लगन, दक्षता, प्रबंधन, कला का सम्मान होना चाहिए, लेकिन जो उसका पावना है, हम उसे सही रूप में दे नहीं पाते। हो सकता है कि लोग यह मान बैठे हैं कि उद्योगपति यदि श्रम करता है या किसी को नौकरी देता है तो अपना लाभ प्राप्त करने के लिए। लोगों के दिमाग में यह भी बैठ गया है कि पैसा केवल गलत तरीके से ही कमाया जाता है। आम आदमी यह भी सोचता है कि पैसे वाला अपनी मेहनत का फल तो भोग ही रहा है, सारे सुख प्राप्त कर रहा है, अब वह त्यागियों वाला आदर क्यों चाहता है? विवाहों-त्यौहारों इत्यादि अवसरों पर किए जाने वाले आडंबर आग में घी का काम करते हैं।

यूं आम आदमी आदर उसे ही देता है जो निःस्वार्थ भाव से सर्वजन हिताय के कार्य करता है। जो धनपति विनम्र हैं, दान देते हैं, रहमदिल हैं - उनका आदर आज भी किया जाता है, क्योंकि वह पैसे का सदुपयोग कर रहा है, त्याग कर रहा है। भारत के इतिहास में किसी धनपति का नाम नहीं आता है, भामाशाह को छोड़कर। वह इसलिए कि उन्होंने धन का त्याग किया था। धन की ओर भागने वाले व्यापारी, नेता, पत्रकार, प्रशासक, वकील, शिक्षक साधू के बारे में आम आदमी अच्छी राय नहीं रखता है।

धन और धनपति को आदर न मिलने की व्याख्या करते हुए विनोद रिंगानिया ने लिखा है "ऐसा उस मानसिक प्रदूषण के कारण होता है, जो सदियों से हमारे दिमाग में भरता गया है। भारत में साहित्य में, नाटक में, गीतों में कहीं भी पैसे कमाने को एक महत्वपूर्ण काम नहीं बताया गया है।' मैं उनसे सहमत नहीं हूं। जरा विस्तार में कहना चाहूंगा कि यह हमारे मानसिक प्रदूषण का नहीं, सदियों के आध्यात्मिक चिंतन का परिणाम है। यह सही है कि पिछले हजार वर्ष के अंधकार ने हमारे मन में धन के प्रति एक अन्यथा भाव पैदा कर दिया, लेकिन यह भारत की मूल भावना नहीं है। जब उसने देखा कि धन कमाने वाले अध्यात्म के विरुद्ध काम कर रहे हैं, ऐय्याशियां कर रहे हैं, तो धन के प्रति आदर और कम हुआ। हमें सामंती और नवाबी युग नहीं भूलना चाहिए। उसकी गहराई में आज भी कहीं अध्यात्म बैठा है, वही उसकी प्राण नाड़ी है।

जरा गहराई में उतरें तो पाएंगे कि हमारे देश ने उस पेशे को व्यावसायिक नहीं होने दिया, जिसमें व्यक्ति खुद उत्पादन बन जाए। व्यक्ति के शारीरिक, बौद्धिक, मानसिक और आध्यात्मिक विकास करने वाले का दृष्टिकोण व्यावसायिक नहीं होना चाहिए। यही वजह है कि वैद्य (शारीरिक विकास), शिक्षक (बौद्धिक विकास), कलाकार (मानसिक विकास) और योग गुरु या धर्मगुरु (आध्यात्मिक विकास) अपनी विद्या बेचते नहीं थे, जरूरत भर लेते थे। उनके गुरु उनसे कहते थे कि तुम यदि इनको बेचोगे तो मेरे द्वारा दी गई विद्या भूल जाओगे। और आज ये चारों क्षेत्र बड़े से बड़ा उद्योग बन गए हैं। उच्च इलाज, शिक्षा, संगीत और योग तेजी से आम आदमी की पहुंच के बाहर हो रहे हैं। आज व्यक्ति प्रोडक्ट हो गया है। हर आदमी एक-दूसरे को बेच रहा है, खरीद रहा है। हमारे चिंतकों ने धन की सीमा को भी समझ लिया था, उस सीमा तक उसे आदर भी दिया है। एक व्यक्ति धन के बूते पर हो सकता है कि ओलंपिक में चुन लिया जाए या एक्टर बन जाए या डाक्टर बन जाए, मगर अच्छा खेलना, अच्छी एक्टिंग करना या इलाज करना तभी संभव होगा, जब वह उसके काबिल हो, यानी उसने सीख लिया हो। गीतकार भारतभूषण कहते हैं-

"बिकता है सिंदूर हाट में,

नहीं सुहाग बिका करता।

वीणा चाहे जहां खरीदो,

किंतु न राग बिका करता।

यदि सूनापन मिट जाता तो

नभ दे देता चांद-सितारे।

कलियां हो नीलाम न उनका

गंध-पराग बिका करता है।'

साहित्य में धन के पक्ष में भी लिखा गया है। "मृच्छकटिक (शूद्रक) में लिखा है- निर्धनता सर्वापदामास्पदम्‌' (निर्धनता सब विपत्तियों का घर है)। "नीतिदिष्टिका' (सुंदर पांड्य) में लिखा है- "द्रव्येण सर्वे वशा:' (धन के सभी वशीभूत होते हैं) धन को साधन माना है, साध्य नहीं। लक्ष्मी, विष्णु के पांव दबाती हैं, उनके सर पर नहीं बैठतीं। ॠषि-चिंतन ने धनपति होने को कहा है, धन का गुलाम होने को नहीं। क्या यह उचित होगा कि धन कमाने वालों पर कसीदे लिखे जाएंं। लिखे हैं कवियों और शायरों ने कसीदे- पर पछताए ही। अमीर खुसरो, मिर्जा गालिब और अन्य सामंती युग के कवियों और शायरों को पढ़ें। इस देश में धन के गीत गाए हैं, मगर उन्होंने धन चांदी के सिक्कों को नहीं राम को माना है। मीरा ने नाचते हुए गाया- "पायो जी मैंने राम रतन धन पायो।' मीरा को क्या करना चाहिए था? क्या वह महलों में रहकर यह गाती कि "पायो जी मैंने लाख टका धन पायो' या "पायो जी मैंने गहना को सुख पायो।' अब "राम' क्या है इसकी व्याख्या की आवश्यकता मैं नहीं समझता, बाबा तुलसी ने बात खत्म कर दी है। जैनियों के सारे तीर्थंकर राजा थे- निकल गए लंगोटी पहनकर, यह काम सिद्धार्थ ने किया, त्याग दिया कपिलवस्तु का राज्य। आज भी ऐसे लोग हैं, जो धन-वैभव छोड़कर सही मायने में संन्यास ले चुके हैं। साहित्य, नाटक या गीत किसके गुण गाए? उनको जिन्होंने सारा राज-पाट निस्सार समझकर छोड़ दिया या उनके जिन्होंने छीना-झपटी करके धन की सत्ता हासिल की है? ॠषि-प्रज्ञा ने सदैव त्याग को महत्व दिया है। छीना-झपटी को नहीं। यही वजह है कि यहां का हर व्यक्ति अपना गोत्र ॠषियों में खोजता है और पश्चिम के लोग अपना उद्‌गम राज्य में खोजते हंैं।

वैसे बता दूं कि भारतीय साहित्य, नाटक या गीत धन की महत्ता से भरे पड़े हैं मगर उसका स्वरूप कुछ और है। गृहस्थाश्रम का महत्व पढ़ें। पहले यह निर्देश दिया गया है कि एक गृहस्थ को धन किस तरह अर्जित करना चाहिए, फिर यह बताया गया है कि उसका उपयोग करके गृहस्थ धर्म कैसे निभाएं और ऐसा करने वालों को संन्यासियों से भी ऊंचा बताया गया है।

संस्कृत साहित्य में व्यापारियों को श्रेष्ठी कहकर संबोधित किया गया है, क्योंकि वह पूरे समाज को देखता है। वही श्रेष्ठी कालांतर में सेठ कहलाया। यह बात भी सोचने की है कि श्रेष्ठी का वह सम्मान गुम क्यों हो गया? सेठ शब्द विकृत क्यों हो गया? व्यापारियों और उद्योगपतियों ने देश के विकास में बहुत बड़ा योगदान दिया है। उनकी महत भूमिका रही है, इस हेतु वह पूरे सम्मान के हकदार हैं। मगर यहां के सदियों के साहित्य, नाटकों और गीतों पर मानसिक प्रदूषण का आरोप नहीं लगाया जा सकता।

उपरोक्त वर्णित लेख में विनोदजी ने गरीबी और संतोष का जिक्र भी एक ही सांस में किया है। इस देश ने कभी भी गरीबी को महिमामंडित नहीं किया। गरीब रहते हुए स्वाभिमान, सहनशक्ति, संघर्ष और आत्मबल कायम रखना मुश्किल हो जाता है, जिन्होंने इनका दामन नहीं छोड़ा, उनकी महिमा गाई गई है। और जहां संतोष का प्रश्न है, यह तो भगवान का वरदान है, जो नसीब वालों को प्राप्त होता है। अमीर और फकीर में यही फर्क है। फकीर हर हाल में संतुष्ट है, अमीर हर स्थिति में असंतुष्ट है। उसका दामन नहीं भरता कभी। कवि शैलेंद्र ने कहा है-

"बहुत दिया देने वाले ने तुझको, आंचल ही न समाए तो क्या कीजै'।
तस्वीर का दूसरा पहलू भी है। कुछ लोगों ने राजनीतिक लाभ उठाने के लिए आम आदमी की कुंठाओं और भ्रांतियों का सहारा लेकर उनके दिमाग को प्रदूषित किया। उन्हें समझाया गया कि देखो इसने हवेली बना ली, यह पूंजीपति है, इसने तुम्हारा शोषण किया है। अब कोई उनसे यह पूछे कि इनके पास क्या था जो उसका शोषण किया। केवल एक लेबर था, जिसको वो पूंजी में नहीं बदल सके। पूंजीपति ने बदल दिया तो शोषण किया। हां, लेबर को पूरा पैसा नहीं मिलता है तो शोषण है, उसके लिए बात होनी चाहिए, न्याय मिलना चाहिए। पं. जवाहर लाल नेहरू जैसे व्यक्तित्व ने एक जगह कहा था कि मुझे प्रोफिट शब्द से नफरत है। उसका बड़ा करारा जवाब स्व. जेआरडी टाटा ने दिया था। जहां तक भ्रष्ट तरीके से पैसा कमाने का सवाल है, उसमें व्यवसायी ही नहीं, बल्कि पत्रकार हो या कलाकार, प्रशासन हो या राजनीतिज्ञ, डाक्टर हो या अन्य कोई, वह आम आदमी की आलोचना का विषय बनता है। बेईमानी या चोरी का पैसा कमाने वाले कभी भी आदर्श नहीं हो सकते।

मारवाड़ी के संबंध में हमें एक बात याद रखनी होगी कि वे अपने-अपने स्थानों से धन कमाने आए थे, साहित्य रचने या पत्रकारिता करने नहीं। बरसों तक घरवालों को पता नहीं होता था कि उसके परिवार का सदस्य जिंदा है या मर गया। वह अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा था। वैसे ही जैसे आज से करीब तीस वर्ष पहले जो भारतीय अमरीका गए थे वे अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे थे। उन्होंने अब दूसरे क्षेत्रों में रुचि लेनी आरंभ की है। वैसे ही मारवाड़ी कई दशकों तक खुद को स्थापित करने में मितव्ययता से काम लेता रहा। हालांकि मक्खीचूस और कंजूस जैसे विशेषण उस पर लगते रहे। फिर भी उसने अपनी कमाई का एक हिस्सा जनसेवा के कार्य में बराबर खर्च किया। उसकी स्थिति यह नहीं थी कि वह रचनात्मक क्षेत्रों में जाने की सोचे। वह जहां भी गया स्थानीय लोगों के लाभार्थ काम करता रहा, कभी बाधक नहीं बना। उसने इस अंदाज में काम किया-

"आने से हमारे न परेशान हो गुंचों

हम बाग लगाते हैं, उजाड़ा नहीं करते'

व्यापार या उद्योग, वितरण या उत्पादन से ताल्लुक रखता है, जबकि साहित्य, कला, संगीत सृजनात्मकता से संबंध रखते हैं। दोनों का महत्व है। उत्पादन की आयु छोटी होती है, सृजन की लंबी- जरूरी दोनों है। इस समाज ने उत्पादन पर तो बहुत ध्यान दिया, लेकिन सृजन को आदर देने में उदासीन रहा। दोनों में एक संतुलन नहीं बना पाया।

मारवाड़ी समाज के पास प्रचुर मेधा व प्रतिभाएं हैं। लेकिन उन्हें वांछित वातावरण नहीं मिल पा रहा है। यह काम गुजराती समाज ने सफलता के साथ किया है। मारवाड़ी समाज ने अर्थ-केंद्रित इतने रीति-रिवाज कर दिए कि इस समाज के व्यक्ति का पूरा जीवन अर्थ अर्जित करने में ही लग जाता है। यहां महान प्रतिभाओं को विकसित होने का अवसर ही नहीं मिल पाता है। और यदि कोई प्रतिभा इसके बावजूद प्रकाश में आ पाती है तो समाज उसे महत्व नहीं देता। फलस्वरूप अन्य समाज इस समाज को प्रतिभाहीन समझने लगता है। इसकी छवि एक ऐसे समाज की बन गई, मानो जिसे रचनात्मकता से कोई मतलब ही न हो, जो कि सही नहीं है।

इस समाज को सम्मान मिले उसके लिए प्रतिभाओं को प्रकाश में लाना होगा। उन्हें प्रोत्साहित करना होगा। हमारी समृद्ध विरासत को अन्य समाजों के समक्ष प्रस्तुत करना होगा। अब तक इसका एकांगी रूप ही सामने आया है। लिखते हुए अफसोस होता है कि इस समाज के अखिल भारतीय स्तर के संगठन भी समाज की विरासत उजागर करने में कोई रुचि नहीं रखते हैं। उन्हें आत्ममंथन की जरूरत है।

डा. कृष्ण बिहारी मिश्र ने "हिंदी पत्रकारिता-राजस्थानी आयोजन की कृति भूमिका में इस समाज के योगदान को स्वर्णाक्षरों में रेखांकित किया है। इससे मारवाड़ी समाज के पत्रकारिता से संबंधित अनेक महत्वपूर्ण पहलू उजागर हुए।

मिश्रजी की नजर में मारवाड़ी समाज का अपनी प्रतिभाओं के प्रति क्या दृष्टिकोण है, उसके बारे में क्या लिखते है देखें। उन्होंने अपने दिवंगत विद्वान मित्र के संबंध में जो कि मारवाड़ी था, लिखा है - "विद्या ही मेरे मित्र (नाम नहीं दिया जा रहा है) का स्वधर्म था वणिक-कुल में जन्मे मेरे मित्र में वणिक-बुद्धि थी ही नहीं। उनकी नियति की यही विडंबना थी कि वणिक-लोक विद्या को नहीं, वित्त को उपलब्धि मानता है। बनिया बिरादरी में अकुशल व्यापारी का कोई मोल नहीं होता। मेरे मित्र, वाणिज्य विषयक अपने प्रयोग और प्रचेष्टा में कभी कृतकार्य नहीं हुए। यह उनकी विधर्म-साधना थी। और वणिक- समाज अपने धर्म के मुताबिक विद्या उपलब्धि को बहु मान देने को तैयार नहीं था। मगर विशिष्ट जगत से उन्होंने खास इज्जत कमाई थी, वह बड़ी धन-संपदा से नहीं खरीदी जा सकती। आंख हो तो उनकी श्रद्धांजलि सभा ने बड़े-बड़े धनपतियों की आंखें खोल दी होंगी कि परलोक संवारने की सटीक राह कौन-सी होती है। वे वणिक समाज के चरित्र को बारीकी से समझते थे... जहां जन्मे-पले थे, जिनके मुगालते की कांपती जमीन से भली प्रकार परिचित थे, वहां सांस पर निरंतर अवरोध रचने वाले समाज में सांस लेने को अभिशप्त थे (संवेदना के विविध आयाम प्र.सं. 255)

यदि ऐसा नहीं है तो राजस्थानी भाषा में महान गीतकार गजानन वर्मा चुपचाप क्यों चले जाते हैं(पिछले महीने दिवंगत हुए)? जी हां, वे ही गजानन वर्मा, जिनके गीत "पौ फाटी जद बोलण लागी, पांख पंखेरू पीपळ डाल'

"बाजरै की रोटी पोई फोफलिया रो सागजी' "मैं तो बाबल रे बागां री चीड़कली' या "पगड़ी सम्भाळ भई पगड़ी सम्भाळ' जैसे गीत सुन-सुन कर, गा-गा कर एक पीढ़ी बूढ़ी हो चुकी है। मारवाड़ी समाज के संगठन भी बेखबर हैं। खैर। उनसे यही उम्मीद थी।

अंत में एक बात और याद दिला दूं। यहूदी समाज भी 18वीं शताब्दी में व्यापारिक समाज ही था। हमारी जैसी ही स्थिति थी। मगर 19वीं शताब्दी में जागरण हुआ। सामाजिक व धार्मिक मान्यताओं में विवेकपूर्ण परिवर्तन किए तो एक ही सदी में मार्क्स (1818-1883), फ्रायड (1856-1939) और आइंस्टाइन (1879-1955) जैसे चिंतक और वैज्ञानिक पैदा हुए। तस्वीर ही बदल गई उस समाज की। आज दुनिया उसका लोहा मानती है।

अब यह आम मारवाड़ी का कर्तव्य हो जाता है कि वह आगे बढ़कर समाज में परिवर्तन लाए। एक संतुलन पैदा करे। इस समाज की संस्थाएं तो ऐसा करने में नाकामयाब रही हैं, उनसे कोई उम्मीद भी नहीं है। अतः अब आम आदमी को ही आगे आना होगा। फिर किसी विनोद रिंगानिया को यह लिखने की आवश्यकता नहीं होगी कि "मारवाड़ी को सिर्फ सहन किया जाता है' - उनका दर्द समझिए।

शनिवार, 23 जून 2012

शादियों में आडंबर पर सामाजिक नियंत्रण जरूरी









शादियों में फिजूलखर्ची, दिखावा और आडंबर एक ऐसा विषय है जो उस समय से ही मेरे अंतर्मन को कचोटता रहा है जब से मैंने सामाजिक जीवन में थोड़ी-बहुत रुचि लेनी शुरू की। उस जमाने में हम मारवाड़ी युवा मंच के बैनर तले सक्रिय हुआ करते थे। उन दिनों खुद इन पंक्तियों के लेखक ने, मुरलीधर तोसनीवाल, प्रमोद जैन आदि साथियों ने अपनी-अपनी शादियों में किसी न किसी हद तक कुछ परंपराओं को तोड़ा। तब ऐसा लगने लगा था कि ये उदाहरण एक आंदोलन की चिनगारी बनेंगे और आगे आने वाला आंदोलन समाज में शादी-ब्याह के मौकों को कर्ज लेकर घी पीने के मौके बनने से रोकेगा।

उन दिनों हमारे संकीर्ण मस्तिष्कों को यह लगता था कि सिर्फ मारवाड़ी समाज में ही शादियों के मौकों पर इतना आडंबर, तामझाम और भदेसपन की सीमाएं छूने वाली फिजूलखर्ची होती है। इसका कारण शायद यह होगा कि असमिया समाज में उन दिनों और आज भी तुलनात्मक रूप से शादियां सादगीपूर्ण होती हैं। हमें पता नहीं था कि असम के बाहर सारा भारत आज इस सामाजिक व्याधि के नीचे दबा हुआ कराह रहा है।

आप अध्ययन करके देखें तो पाएंगे कि भारत के हर समाज में अपनी क्षमता से अधिक पैसे शादी पर खर्च करने की प्रवृत्ति काम करती है। इसके कई कारण होते हैं। अपने दैनंदिन जीवन में सीमित संसाधनों से अपना काम चलाने वाले व्यक्ति के लिए शादी सिर्फ एक सामाजिक समारोह न होकर यह दिखाने का अवसर होता है कि उसने पिछले 25 सालों में क्या किया? आर्थिक सीढ़ियों पर कितनी पायदानें इस बीच वह चढ़ चुका है यह दिखाने के लिए शादी के अलावा यदि उसके पास कोई दूसरा मौका होता है तो वह होता है आलीशान घर बनवाने का।

समाज के क्रियाकलाप पर जब सोचते हैं तो कई अजीब चीजें देखने को मिलती हैं। एक मित्र ने ठीक ही प्रश्न किया कि मोबाइल तो बात करने के लिए होता है। फिर लोग इतने महंगे मोबाइल क्यों खरीदते हैं। इसी तरह प्रश्न किया जा सकता है कि शादी तो दो युवाओं के आपसी बंधन को सामाजिक मान्यता देने के लिए होती है, फिर इसमें बेतहाशा खर्च क्यों? यह प्रश्न किसी भी चीज के बारे में पूछा जा सकता है। साधारण शर्ट पहनने से काम चल सकता है तो इतनी कीमती शर्ट क्यों पहनते हैं। इन सवालों का जवाब यह है कि समाज में कोई चीज वही नहीं रह जाती जिससे उसकी शुरुआत हुई थी। विकसित समाज जटिल भी होता है। एक विकसित समाज में मोबाइल सिर्फ बात करने के लिए नहीं होता, यह आपकी हैसियत प्रदर्शित करने का एक माध्यम भी है। एक शर्ट सिर्फ तन ही नहीं ढकती, यह सामाजिक पायदान पर आपका स्थान भी निर्णय करती है। इसी तरह शादी सिर्फ शादी नहीं है, यह समाज में आपका स्थान निर्णय करती है, उसका पुनर्निर्धारण करती है।

हमारे स्कूल के दिनों में वार्षिक परीक्षा हो जाने के बाद नई कक्षा में हमारे बैठने के क्रम का फिर से निर्धारण होता था। उसी तरह शायद एक मध्यवर्गीय या उच्च-मध्यवर्गीय व्यक्ति चाहता है कि शादी में उसके द्वारा किए गए खर्च, उसके समारोह में आए अतिथियों के प्रोफाइल को देखकर समाज उस स्थान पर पुनर्विचार करे, जो शायद उसे 25 साल पहले दिया गया था। क्या समाज शादी में पकवानों की प्रदर्शनी लगाने और अतिथियों की भव्य भीड़ प्रस्तुत करने के माध्यम से उसके द्वारा की गई अपील पर विचार करता है?

इसका उत्तर शायद हां और शायद ना दोनों हैं। महंगे मोबाइल, महंगी कार, महंगे फ्लैट और महंगी शादी को देखकर समाज का एक हिस्सा जल्दी ही प्रभाव में आ जाता है। ऐसे लोग यह फैसला सुनाने की हड़बड़ी में रहते हैं कि श्रीमान क अब पहले वाले श्रीमान क नहीं रहे। उनकी सामाजिक रेटिंग में सुधार होना चाहिए। लेकिन गनीमत है कि समाज के ज्यादातर हिस्से में धन के इस तरह के भद्दे प्रदर्शन के खिलाफ गुस्सा उपजता है। जो लोग आडंबरपूर्ण शादियों में शरीक होते हैं, वे अपने व्यक्तिगत संबंधों के कारण शरीक होते हैं। कई बार जो मेजबान होता है वह उनके शरीक होने को आडंबर और अपव्यय के पक्ष में मतदान समझने की भूल कर बैठता है।

समाज का ज्यादातर हिस्सा चाहता है कि शादियों का खर्च उनकी हैसियत के अंदर रहे। वे शादियों के खर्च को प्रतियोगिता से अलग रखना चाहते हैं। इसका प्रमाण यह है कि हर उस समाज में जहां आज भी परंपराएं मजबूत हैं शादियों के खर्च को सीमाओं में बांधने की जद्‌दोजहद जारी है। हाल ही में हमने पढ़ा कि किसी उत्तरी भारत के राज्य में गुर्जरों की पंचायत ने शादियों के समारोह पर कुछ प्रतिबंध लगाए हैं। समस्या यह है कि हर समाज में पंचायतें मजबूत नहीं हैं। शहरी समाज में तो वे हैं ही नहीं। ऐसे में सामाजिक संगठनों की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है। उदाहरण के लिए राजस्थान से निकल कर भारत के विभिन्न हिस्सों में बसे लोगों के कई मजबूत सामाजिक संगठन हैं। ये संगठन पंचायत नहीं हैं, लेकिन चाहें तो पंचायतों जैसा महत्व हासिल कर सकते हैं। ऐसे संगठन अपने समाज में शादी विवाह पर होने वाले खर्च की सीमाएं बांध सकते हैं। हालांकि यह कहना जितना आसान है करना उतना ही मुश्किल है।

यह लेख लिखने की प्रक्रिया के दौरान ही कुछ मित्रों से इस विषय पर बहस हुई। एक मित्र का कहना था कि आप उपभोक्तावाद का विरोध कर रहे हैं, और यह विरोध आज के युग में ज्यादा आगे तक चलने वाला नहीं है। आज लोग एक करोड़ की कार लेकर अपनी हैसियत में आए परिवर्तन के बारे में लोगों को सूचना देना चाहते हैं। उन्हें आप किस तरह रोकेंगे। इस पर हमारा कहना यह है कि जब हम शादियों में आडंबर और धन के भद्दे प्रदर्शन पर रोक लगाने की वकालत करते हैं तो हमारा उद्देश्य वहीं तक सीमित होता है। इसे बाकी उपभोक्तावाद के साथ गड्डमड्ड नहीं करना चाहते। क्योंकि शादी एक सामाजिक समारोह है, जो हर परिवार को एक न एक दिन आयोजित करना है। जब कोई धनाढ्‌य व्यक्ति शादी में होने वाले खर्च की सीमा को ऊंचा उठा देता है तो उसके वर्ग के समकक्ष व्यक्तियों पर एक तरह का दबाव पैदा हो जाता है कि उन्हें भी अपनी सामाजिक स्थिति को बचाए रखने के लिए इसी तरह का खर्च करना होगा। इस तरह शादियों में खर्च अपव्यय और भौंडे दिखावे की सीमाएं छूने लग जाता है। लेकिन जहां तक महंगी कार, या महलनुमा घर की बात है- इस तरह का उपभोक्तावाद भले ईर्ष्या और आतंक पैदा करे लेकिन इससे समाज का आम व्यक्ति यह दबाव महसूस नहीं करता कि उसे भी इस तरह का खर्च करना होगा। एक सामाजिक एक्टिविस्ट ने ठीक ही कहा िक "जनम-वरण और मरण' के अवसर पर होने वाले अनुष्ठान सामाजिक निगरानी के तहत होने चाहिए। ये अवसर व्यक्तिगत होते हुए भी नितांत व्यक्तिगत नहीं हैं। इन तीनों अवसरों के लिए बनाए गए विधान सामाजिक पंचायतें और संगठन लागू भी कर सकते हैं, क्योंकि कोई कितना ही धनी क्यों न हो वह इस बात को स्वीकार करता है कि इन अवसरों के बारे में समाज को बोलने का अधिकार है। 
 
 
हाल ही में अहमदाबाद के बहुत ही सम्मानित तथा धनाढ्‌य व्यक्ति गिरीश दानी ने एक उदाहरण पेश किया। वे अपने बेटे और होने वाली बहू (अहमदाबाद के विख्यात डाक्टर की बेटी) को लेकर अपने गुरु आसाराम बापू के आश्रम में गए। वहां मंदिर में साधारण रूप से शादी संपन्न करने के बाद उन्होंने आसाराम बापू को एक करोड़ का चेक भेंट किया तथा कहा कि इस राशि से वे एक सौ जरूरतमंद जोड़ों की शादी करवा दें। मध्यवर्ग में शादियों में होने वाले अपव्यय को रोकने के लिए उच्च-मध्यवर्ग द्वारा पेश किए जाने वाले ऐसे उदाहरणों की एक बहुत बड़ी भूमिका हो सकती है।

गुरुवार, 14 जून 2012

मारवाड़ी को सिर्फ सहन किया जाता है


हालांकि कम्युनिस्ट व्यवस्थाएं ध्वस्त हो चुकी हैं, लेकिन जब ये व्यवस्थाएं थीं तब वहां पैसे कमाने को गुनाह माना जाता था। चीन में कहने को कम्युनिस्ट शासन है, लेकिन वहां पूंजीवादी शैली की व्यवस्था की इजाजत दे दी गई। तंग (देंग) श्याओ पिंग की वह उक्ति काफी प्रसिद्ध हो चुकी हैकि बिल्ली चाहे भूरी हो या सफेद हमें मतलब इस बात से है कि वह चूहे पकड़ती है। यानी पूंजी का सृजन, धन पैदा करना किसी भी व्यवस्था का उद्देश्य होना चाहिए, चाहे वह धन कम्युनिस्ट प्रणाली से पैदा हुआ हो या पूंजीवादी प्रणाली से।


भारत में कम्युनिज्म और मार्क्सवाद का काफी प्रभाव रहा। यहां तक कि जो पार्टियां अपने-आपको कम्युनिस्ट या मार्क्सवादी नहीं कहती थीं उन पर भी इन विचारों का जाने-अनजाने में गहरा प्रभाव रहा। कांग्रेस या भारतीय जनता पार्टी- जैसी पार्टियां भी साफ शब्दों में आज भी यह कहने का साहस नहीं जुटा पातीं कि हम पूंजीवाद का समर्थन करती हैं। पिछड़ों और मुसलमानों को आधार बनाकर राजनीति करने वाले मुलायम सिंह यादव भी अपनी पार्टी को समाजवादी पार्टी ही कहलवाना पसंद करते हैं।


इस वैचारिक वातावरण का प्रभाव हमें रोजाना की दिनचर्या में देखने को मिलता है। जब किसी सार्वजनिक मंच पर किसी पैसे वाले का सम्मान करना होता है, तो उसे समाजसेवी कहकर संबोधित किया जाता है। उसे व्यवसायी, पूंजीपति, उद्यमी या उद्योगपति कहते समय जबान खुद-ब-खुद लड़खड़ा जाती है। ऐसा दूसरे पेशों को अपनाने वालों के साथ नहीं होता। पत्रकार को पत्रकार, शिक्षक को शिक्षक (इन्हें शिक्षाविद्‌ कहने का चलन हो गया है), डाक्टर को डाक्टर और अफसर को प्रशासनिक अधिकारी कहते समय जबान नहीं लड़खड़ाती, लेकिन व्यवसायी को व्यवसायी कहते समय जबान रुक जाती है। वह कोई और शब्द खोजने लगती है।


ऐसा उस मानसिक प्रदूषण के कारण होता है, जो सदियों से हमारे दिमाग में भरता गया है। भारत में साहित्य में, नाटकों में, गीतों में कहीं भी पैसे कमाने को एक महत्त्वपूर्ण काम नहीं बताया गया है। बल्कि इसकी जगह गरीबी को या संतोष को महिमा मंडित करते हुए हम जरूर देखते हैं। यह एक दिलचस्प बात है कि जिन जातियों, पेशों को बाकी समाज तिरस्कार की नजर से देखता है, वे जातियां या वे पेशे वाले स्वयं भी अपनी जाति या पेशे को नीची नजरों से देखने लग जाते हैं। जो लोग दलित आंदोलन या ओबीसी आंदोलन से जुड़े हैं या उस राजनीति से जुड़े हैं उनकी बात छोड़ दें तो आप किसी भी धोबी, नाई या सफाई कर्मचारी को गर्व के साथ अपने पेशे की घोषणा करते हुए नहीं देखेंगे। हो सकता है एक धोबी एक साधारण किरानी से ज्यादा कमा लेता होगा; लेकिन किसी ट्रेन यात्रा में कोई धोबी अपना परिचय धोबी के रूप में नहीं देगा।


यही बात कमोबेश व्यवसायियों पर लागू होती है। जो टाटा समूह देश की शान है, जिस समूह के साथ भारत की पहचान जुड़ गई है- उस समूह के नाम को कल तक राजनीतिक पार्टियां शोषण के प्रतीक के रूप में इस्तेमाल करती थीं। हाल के वर्षों में भले थोड़ा परिवर्तन आया हो, लेकिन अस्सी के दशक तक "शोषक' और "टाटा बिड़ला' को पर्यायवाची के रूप में इस्तेमाल करना एक आम बात थी।


भारत में कुछ सरकारी विभाग ऐसे हैं, जहां कोई बिरला ही सौ प्रतिशत ईमानदार मिलता है। जैसे कर विभाग। लेकिन किसी कर आयुक्त को अपना परिचय कर आयुक्त के रूप में देते समय यह कैफियत नहीं देनी पड़ती कि मैंने भ्रष्ट तरीके से पैसे नहीं कमाए। यही बात अन्य पेशों पर लागू होती है। जब कोई कहता है कि अमुक जी पत्रकार हैं या लेखक हैं या गीतकार हैं- तब यह मानकर चला जाता है कि पत्रकार, लेखक या गीतकार महोदय की रचनाएं मौलिक ही होंगी। जब तक कोई आरोप न लगे तब तक उनकी मौलिकता पर कोई सवाल नहीं उठा सकता। यदि कोई उठाता है, तो उसे ईर्ष्यालु या बदतमीज माना जाएगा। लेकिन व्यवसायी के मामले में यह सवाल बिना किसी संकोच के उठा दिया जाता है। जब एक चर्चा के दौरान एक वक्ता ने पूछा कि "पैसा कमाना गुनाह तो नहीं' तो किसी ने कहा कि "गुनाह नहीं है यदि पैसे ईमानदारी तरीकों से कमाए गए हों।' क्या यह "यदि' किसी अन्य पेशे के साथ जोड़ा जाता किसी ने देखा है। इस सामाजिक बेहयाई की सिर्फ व्यापारी के मामले में इजाजत है।


असम की विशेष परिस्थितियों में जहां हरेक समुदाय के पास अपने पड़ोसी समुदाय के विरुद्ध शिकायतों की सूची होती है मारवाड़ी को यहां पूंजीपति या व्यवसायी के पर्याय के रूप में देखा गया। यह सही भी है कि आज असम में मारवाड़ी समुदाय के अधिकांश लोग व्यवसाय की गतिविधियों में लगे हुए हैं। असम के मारवाड़ी साधारणतया विनयी और झगड़े-झंझट से दूर रहने वाले लोग हैं। ये लोग स्थानीय राजनीति, साहित्य, संस्कृति से भी दूर रहते हैं। अपनी लगन, मेहनत, अध्यवसाय और व्यवसाय जगत में छाए पहले के शून्य स्थान के कारण इन लोगों ने पूंजी का सृजन किया है, अखिल भारतीय स्तर पर भले एक-दो ग्रुप ही उभर का आए हों, लेकिन प्रांत के स्तर पर व्यवसाय-उद्योग में मुख्यत: मारवाड़ियों का ही बोलबाला है।


पूंजी विरोधी मानसिक प्रदूषण ने क्षेत्रीयतावाद के साथ मिलकर जो विचारधारा रची है, उसमें मारवाड़ी सिर्फ एक विलेन के रूप में ही फिट होता है। विडंबना यह है कि इस वातावरण ने स्वयं मारवाड़ियों के दिमाग को भी दूषित कर दिया है। इसका प्रमाण यह है कि जब आरोप लगाने वाली अंगुलियां मारवाड़ियों की ओर उठती हैं तो उनके बुद्धिजीवी अपना बचाव करते समय आरोप लगाने वालों की विचारधारा का ही सराहा लेते हैं। मसलन, जब कहा जाता है कि "छि: आपलोग व्यवसायी हैं अर्थात शोषक हैं'' (स्रोत : मार्क्सवाद) तो उत्तर दिया जाता है कि "माफ कीजिए सभी लोग व्यवसायी नहीं हैं। हमारे बहुत से लोग अन्य पेशों में भी लगे हुए हैं (जिन्हें आपलोग भी सम्मानजनक मानते हैं), यहां तक कि बहुत से लोग तो कविता तक लिखते हैं (आपकी नजर में अत्यंत सम्मानजनक कर्म)''। जब यह आरोप लगाया जाता है कि ""आपलोग सिर्फ अपने आप से और पैसे से मतलब रखने वाले लोग हैं, स्थानीय भाषा, संस्कृति से आपका कोई लगाव नहीं है'' (स्रोत : अंध क्षेत्रीयतावाद) तब उत्तर में एक सूची पेश की जाती है कि हमारे ये-ये लोग असमिया भाषा में सृजन कार्य कर रहे हैं। यह सूची बहुत ही छोटी होती है और एक तरह से आरोप लगाने वालों की बात को ही सिद्ध करती है। इस सूची में घालमेल में भी इस अर्थ में होता है कि महान असमिया साहित्यकार ज्योति प्रसाद अगरवाला के परिवार को भी मारवाड़ी मानकर इसमें शामिल कर लिया जाता है। कई बार इस पर प्रतिक्रिया नहीं होती और कई बार इसी परिवार के सदस्य अपने आपको मारवाड़ी कहे जाने पर एतराज जताते हैं।






कुल मिलाकर प्रश्न, जैसा कि एक चर्चा के दौरान पूछा गया, यहीं सिमटकर आ जाता है कि मारवाड़ी को सम्मान क्यों नहीं मिलता। इसका एक ही उत्तर है कि सम्मान पाना न पाना असम में मारवाड़ी के कर्मों पर उतना निर्भर नहीं है जितना सामने वाले की दृष्टि पर। देखने वाला एक भ्रष्ट अधिकारी को सम्मान की दृष्टि से देखता है, लेकिन एक खुदरा दुकानदार को सम्मान नहीं देता तो यह पूरी तरह उसकी दृष्टि पर निर्भर है। वह कहता है कि हमें कविता पसंद है और आप सम्मान पाने के लिए कविता लिखने लग जाएं तो यह हास्यास्पद होगा। कोई धोबी को सम्मानजनक दृष्टि से नहीं देखता तो इलाज उसकी दृष्टि का होना चाहिए, न कि धोबी को अपना काम छोड़कर दूसरे काम में लग जाना चाहिए।


मारवाड़ियों के असम आने की जो भी ऐतिहासिक परिस्थितयां रही हों, लेकिन भारत के एक अग्रणी उद्यमी समुदाय के इस क्षेत्र में आने से एक शून्य की पूर्ति हुई है और इसे देखते हुए इनकी भूमिका का यहां स्वागत होना चाहिए था। लेकिन विडंबना यह है कि मारवाड़ियों को यहां सिर्फ सहन किया जाता है।

रविवार, 10 जून 2012

क्या केंद्र पूर्वोत्तर के विरुद्ध साजिश करने में व्यस्त रहता है



पिछले दिनों पूर्वोत्तर के सातों राज्यों के कुछ छात्र संगठनों के फेडरेशन नार्थ ईस्ट स्टूडेंट्‌स आर्गेनाइजेशन (नेसो) ने अपनी इस मांग को लेकर आंदोलन शुरू किया है कि पूर्वोत्तर क्षेत्र के सभी राज्यों को संविधान के अंतर्गत विशेष दर्जा दिया जाना चाहिए। नेसो के गुवाहाटी में हुए प्रदर्शन के समय कही गई बातों से यही समझ में आया कि यह संगठन विशेष दर्जे के माध्यम से पूर्वोत्तर के राज्यों में भूमि और प्राकृतिक संसाधनों पर यहां के स्थानीय निवासियों का अधिकार सुनिश्चित करना चाहता है।


विशेष राज्य का दर्जा संविधान में अनहोनी बात नहीं है। हमारे संविधान में इस समय जम्मू-कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा प्राप्त है। इस विशेष अधिकार के तहत अन्य विशेषाधिकारों के अलावा यह व्यवस्था भी है कि जम्मू-कश्मीर में भूमि का हस्तांतरण राज्य के बाहर के व्यक्ति को करना संभव नहीं है। इसी तरह नगलैंड को भी कई विशेष अधिकार प्राप्त हैं, जिनके तहत वहां के प्राकृतिक संसाधनों पर केंद्र सरकार का नहीं बल्कि राज्य सरकार का अधिकार है। साथ ही अन्य बहुत से प्रावधान हैं-जिनमें यह उल्लेखनीय है कि नगा समुदाय के पारंपरिक कानून-कायदों में केंद्र के किसी कानून के माध्यम से हस्तक्षेप करने की इजाजत नहीं है। पूर्वोत्तर राज्यों के लिए छठी अनुसूची की भी विशेष व्यवस्था है (इसे पूर्वोत्तर के बाहर सिर्फ दार्जिलिंग में लागू किया गया है), जिसके तहत किसी क्षेत्र विशेष का प्रशासन एक निर्वाचित परिषद को सौंप दिया जाता हैऔर यह निर्वाचित परिषद अपने अधिकार प्राप्त विषयों में स्वायत्त होती है। छठी अनुसूची के अंतर्गत इस समय असम में बोड़ो क्षेत्रीय स्वायत्त जिले, कार्बी आंग्लोंग स्वायत्त जिला और डिमा हासाउ जिले में इस तरह के स्वायत्त शासन की व्यवस्था है। मूलत: यह व्यवस्था किसी जनजातीय बहुल क्षेत्र को स्वायत्तशासन की सुविधा उपलब्ध कराने के लिए शुरू की गई है।


पूरे असम को विशेष दर्जा दिए जाने की मांग हाल ही में अल्फा के वार्तापंथी गुट ने भी केंद्र सरकार को सौंपे अपने मांगपत्र में उठाई है। इस मांगपत्र में असम को जम्मू-कश्मीर की तरह विशेष राज्य का दर्जा दिए जाने की मांग की गई है। लगता है असम में "विशेष दर्जा' शब्दों के प्रति विशेष आकर्षण है, जिसके कारण हम समय-समय पर इस तरह की मांग को उठते हुए देखते हैं। लेकिन हाल में इस आकर्षण में वृद्धि का प्रमुख कारण यह भी है कि असम में स्थानीय (गैर जनजातीय) लोगों के हाथ से जमीनें निकलकर बाहर के राज्यों से आए लोगों के हाथों में चली जा रही हैं-ऐसा एक डर व्यापक रूप से फैल गया है। विशेष दर्जे की मांग उठाने वाले जानते हैं कि यदि यह मांग मान ली गई तो असम में कोई भी स्थानीय व्यक्ति गैर-स्थानीय व्यक्ति को अपनी जमीन हस्तांतरित नहीं कर पाएगा। अभी सिर्फ जनजातीय लोगों के लिए यह प्रावधान है कि वे गैर जनजातीय लोगों को भूमि हस्तांतरित नहीं कर सकते।


अल्फा और नेसो द्वारा विशेष दर्जे की मांग उठाने से पहले ही अखिल असम छात्र संघ (आसू) ने अपने 1985 के समझौते में केंद्र सरकार से यह वादा प्राप्त कर लिया था कि "असमिया' समुदाय की अलग पहचान, संस्कृति (आदि) की सुरक्षा के लिए संविधान में विशेष प्रावधान किए जाएंगे। ये प्रावधान क्या होंगे इस पर 1985 का असम समझौता मौन है, यानी इस पर आगे बातचीत की गुंजाइश है। इन प्रावधानों में भूमि को स्थानीय लोगों के हाथ निकलने से बचाना, असमिया समुदाय के लिए निर्वाचित विधायिका में आरक्षण की व्यवस्था आदि भी शामिल हो सकते हैं। लेकिन इस मुद्दे पर सबसे बड़ी विडंबना यह है कि "असमिया' कौन है, आज तक यह निर्णय नहीं हो पाया। दरअसल जब असम समझौते पर हस्ताक्षर किए गए थे तब तक असम में जनजातीय स्वर इतना ऊंचा और मजबूत नहीं हो पाया था कि आसू नेतृत्व उसकी परवाह करता और "असमिया' शब्द की जगह कोई ऐसा शब्द व्यवहार करता जिसमें असम के सभी मूल समुदाय शामिल हो जाते। अब समस्या यह हो गई है कि असम के जनजातीय समुदायों को अलग रखकर अलग पहचान और संस्कृति की रक्षा के प्रावधान करना एक राजनीतिक मजाक ही हो सकता है। और जनजातीय समुदाय अपने आपको असमिया कहे जाने से सख्त परहेज करते हैं।



हाल ही में एक टीवी कार्यक्रम के दौरान नेसो के सचिव प्रधान गुंजुम हैदर से हुई बातचीत में उन्होंने पूर्वोत्तर के लोगों की व्यथा का जिक्र करते हुए बताया कि इतने भारी जनविरोध और दुरुपयोग के स्पष्ट प्रमाणों के बावजूद सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम (अफस्पा) को नहीं हटाया जा रहा है, जबकि माओवादी हिंसा वाले राज्यों में यह कानून लागू नहीं है। इसके अलावा बाहरी राज्यों में पूर्वोत्तर के लोगों को अपमानजनक नामों से पुकारे जाने या उन्हें नेपाली या चीनी नागरिक समझने पर भी उन्होंने क्षोभ व्यक्त किया। उनके पास शिकायतों की लंबी फेहरिश्त थी और कहना था कि या तो आप इन समस्याओं का समाधान करें या फिर हमें अपना शासन खुद चलाने दें। "विशेष दर्जा' से उनका यही तात्पर्य था कि इसमें राज्य सरकार के पास इतने अधिकार आ जाएंगे कि वह अपनी समस्याओं का समाधान स्वयं खोज लेगी।


लगता है आने वाले दिनों में "विशेष राज्य का दर्जा' का मुद्दा जोर पकड़ेगा, क्योंकि इस मांग के पीछे असम के ताकतवर आसू जैसे छात्र संगठन का भी जोर है। यदि ऐसा होता है तो एक बार फिर "केंद्र का पक्षपात', "पूर्वोत्तर की अनदेखी' जैसे नारे हवा में उछलेंगे। इससे पूर्वोत्तर की युवा पीढ़ी में फिर से यह भावना मजबूत होगी कि भारत राष्ट्र में हमारा दर्जा समान नहीं है, हमारे साथ भेदभाव की नीति अपनाई जाती है। इसका दूरगामी और घातक प्रभाव युवा मस्तिष्क पर पड़ता है, जो राष्ट्र की एकता की दृष्टि से एक खतरनाक बात है।


हमेशा केंद्र को कोसने वाले पूर्वोत्तर के छात्र संगठनों से जब यह पूछा जाता है कि आप जितनी ऊर्जा के साथ केंद्र सरकार का विरोध करते हैं, उतनी ताकत राज्य सरकारों पर दबाव बनाने के लिए क्यों इस्तेमाल नहीं करते। जबकि देखा जाता है कि पूर्वोत्तर में बड़े ही लचर ढंग से सरकारी कामकाज चलता है। केंद्र से आने वाली राशि का बहुत बड़ा हिस्सा बिना इस्तेमाल के वापस लौट जाता है। केंद्र सरकार की ओर से सभी मंत्रालयों के योजनागत व्यय का दस फीसदी हिस्सा सिर्फ पूर्वोत्तर पर खर्च करने का प्रावधान है, लेकिन इसका भी बड़ा हिस्सा बिना खर्च हुए सिर्फ कोष में जमा हो रहा है। इस आरोप पर छात्र संगठनों के नेता दावा करते हैं कि उन्होंने अपनी-अपनी राज्य सरकारों को बख्श नहीं दिया है बल्कि उनके विरुद्ध भी आंदोलन चलता रहता है।


एक हद तक यह सही है कि पूर्वोत्तर के छात्र संगठन राज्य सरकारों के प्रशंसक नहीं हैं और उनकी आलोचना में मुखर देखे जाते हैं। लेकिन उनकी ओर से की जाने वाली राज्य सरकार और केंद्र सरकार की आलोचना में एक बुनियादी फर्क यह है कि जहां राज्य सरकार की खामियों को लचर राजकाज (गवर्नेंस) के रूप में देखा जाता है, वहीं केंद्र सरकार के प्रति शिकायतों को पूर्वोत्तर के प्रति भेदभाव, पक्षपात, एक क्षेत्र विशेष को वंचित रखने की साजिश के रूप में देखा जाता है। जब केंद्र सरकार की बात आती है तो यह देखने से परहेज किया जाता है कि पूर्वोत्तर को लेकर केंद्र के दायित्व पूरे नहीं हो रहे हैं तो उसका कारण प्रशासनिक अधिकारियों पर नियंत्रण न होना, सरकारी फैसलों को लागू करने में देरी और गंभीरता की कमी, भ्रष्टाचार, अधिकारियों द्वारा जिम्मेवारी को पूरा न किया जाना, लालफीताशाही जैसी वैसी ही समस्याएं हो सकती हैं जैसी राज्य स्तर पर हैं। स्थिति को गवर्नेंस की कमी के नजरिए से नहीं देखकर राजनीतिक साजिश के रूप में देखा जाता है। इस नजरिए के कारण एक पूरी पीढ़ी अपने आपको वंचित, शोषित की दृष्टि से देखने की मानसिकता के साथ बड़ी हुई है। जैसाकि ऊपर कह चुके हैं यह दूरगामी दृष्टि से खतरनाक है।

ब्लैकमेलिंग ने पत्रकारिता का अधिक नुकसान किया है


आठ साल का बालक। हठात्‌ दोनों पांवों से लकवा आ गया। स्थानीय डाक्टर को दिखाया। लकवा ऊपर की ओर बढ़ता गया, दोनों हाथ चपेट में आ गए। प्राइवेट अस्पताल में भर्ती कराया। लकवा और ऊपर बढ़ा, सांस बन्द होने लगी। आई.सी.यू. में शिफ्ट किया गया और श्वास की नली में छेद कर वेंटीलेटर लगा दिया। डाक्टर ने बताया कोई बीमारी है, ग्यूलेन बारी सिंड्रोम नामक असेंडिंग पैरालिसिस। कोई पुख्ता इलाज नहीं है। लकवा और ऊपर बढ़ना तो बन्द हो गया है स्वतः ही उलटेगा, लेकिन कब तक, कोई कुछ नहीं कह सकता। तब तक वेंटीलेटर से श्वास पर जिन्दा रखना है। बच्चा चैतन्य, खाता-पीता, मुस्कराता, बस हिलडुल नहीं सकता, सांस नहीं ले सकता।


आई.सी.यू में महंगा इलाज, प्रतिदिन हजारों का खर्च। कर्ज लेकर किसी तरह चुकाया, आखिर असमर्थ होने पर बच्चे के पिता ने हाथ जोड़ दिए। साप्ताहिक बिल बढ़ता गया। तकाजा। अस्पताल के फाइनेंस डायरेक्टर ने चिकित्सक के नाम मेमो भेजा कि उनके मरीज का बकाया काफी बढ़ गया है, सेवा शुल्क देने में असमर्थ है और चूंकि यह अस्पताल सशुल्क सेवा ही देता है अतः निश्चयात्मक कारवाई करें। कोशिश की गई बच्चे को सरकारी अस्पताल भेजने की, पर असफल रहे। चिकित्सक ने फाइनेंस डायरेक्टर का मेमो आई.सी.यू. नर्स इंचार्ज को दिखाया और वेंटीलेटर हटाने को कहा। वेंटीलेटर हटाने का मतलब था जीते जागते चैतन्य बच्चे को जैसे गला घोंट कर मार देना। आंखों के सामने नीला पड़े दमघुट मरते देखना। नर्स ने मना कर दिया कहा, वे सब बाहर चली जाएंगी यह कार्य चिकित्सक खुद करें। चिकित्सक कैसे करता। वह नहीं कर सकता तो उसने कैसे सोचा कि नर्सें जिन्होंने दिन-रात बच्चे को खिलाया-पिलाया, नहलाया, बहलाया, वे करेंगी। गला घोंट कर मारेंगी। आखिर फाइनेंस डायरेक्टर को लिखा गया कि न तो वेंटीलेटर हटाया जा सकता है और न ही चिकित्सा बन्द की जा सकती है। सेवा करने वाले यह क्रूरकर्म नहीं कर सकते। शुल्क वसूल करने वालों को क्या करना है वे जाने, उनका काम जाने। वे मालिक हैं।
"एक डाक्टर की डायरी' में श्रीगोपाल काबरा, जयपुर


ऊपर हमने एक डाक्टर की डायरी से यह दृष्टांत उद्धृत किया है ताकि पाठकों को एक पेशेवर की दुविधा का अनुमान हो सके। पत्रकारों को भी ऐसे वाकयों से दो-चार होना पड़ता है, खासकर इलेक्ट्रानिक मीडिया में, जब संचालक आदेश देता है कि किसी नेता, पूंजीपति या सेलेब्रिटी के कपड़े उतार लिए जाएं। छोटे-मोटे घाटे में चलने वाले चैनलों के संचालक तर्क देते होंगे कि ब्लैकमेल नहीं करेंगे तो चैनल चलेगा कैसे? चैनल के संपादक तर्क देते होंगे कि मालिक की आज्ञा का पालन नहीं करेंगे तो बच्चों का पालन कैसे होगा। अक्सर पचास-पचपन के हो रहे संपादकों का यही रोना रहता है कि "बच्चे बड़े हो रहे हैं।' विद्रोह करने के लिए उपरोक्त डाक्टर की तरह बचे रहते हैं सिर्फ ट्रेनी रिपोर्टर जो जब तक शादी नहीं कर लेते तब तक एक चैनल से दूसरे चैनल में आवागमन करते रहते हैं। आखिर एक दिन उनके अंदर के इलेक्ट्रान भी शांत हो जाते हैं और वे भारतीय मीडिया प्रतिष्ठान की जमीनी हकीकत के साथ समझौता कर लेते हैं। तब उनके अंदर का विद्रोह सिर्फ संपादक के साथ बहस करने और भारतीय मीडिया की सारी बुराइयों की जड़ संपादक नामक पद में निहित होना साबित करने तक सीमित हो जाता है।


स्वाधीनता


यह प्रश्न अक्सर उठाया जाता है कि भारतीय मीडिया में पत्रकार को कितनी स्वाधीनता प्राप्त है। जिन दिनों वामपंथ का एक विचारधारा के रूप में बोलबाला था, वामपंथी बुद्धिजीवी गला फाड़कर चिल्लाते थे कि यह बुर्जुवा मीडिया है, इससे आप गरीब और आम जनता की हिमायत की अपेक्षा कैसे रख सकते हैं। वामपंथ का जमाना बीत गया (हालांकि अरुंधती राय को उसका भूत अब भी सता रहा है), लेकिन स्वयं मीडिया के अंदर से ही यह रोना-धोना कम नहीं हुआ है कि उसकी स्वाधीनता पर प्रहार किया जा रहा है।


कौन कर रहा है प्रहार? मीडिया के कुछ लोग नवउदारवादी पूंजीवाद या बाजारवाद की ओर इशारा करते हैं। बाजार ने पत्रकारिता के लिए संसाधन उपलब्ध कराए हैं। उत्पादों के लिए कहीं भीतरी पन्नों पर थोड़ा-बहुत भले लिख दिया जाता होगा, लेकिन आज के युग में सिर्फ विज्ञापनों के बल पर समूचे मीडिया को कोई नियंत्रण में कर लेता होगा, यह सिर्फ एक भ्रम है। बिना संसाधन के कोई अखबार या चैनल कहां होगा इसकी सहज ही कल्पना की जा सकती है- या तो वह किसी राजनीतिक नेता की शरण में जाएगा, या किसी स्थानीय पूंजीपति के पास जो अपनी जेब के पैसे से उसे चलाएगा लेकिन बदले में उससे अपने लिए फायदा भी बटोरेगा, या ब्लैक मेलिंग का रास्ता अपनाएगा, या असमय मौत का शिकार हो जाएगा।


भारतीय मीडिया स्वतंत्र है या नहीं, क्या राजनीतिक दल और पूंजीपति या बाजार इसका गला घोंट रहे हैं- यह देखने के लिए हमें कुछ उदाहरणों को देखना चाहिए। (क) पिछले साल अन्ना हजारे का जबर्दस्त आंदोलन चला। लगभग समूचा मीडिया इस आंदोलन के समर्थन में उतर आया। इस आंदोलन का समर्थन करने से मीडिया हाउसों के किन निहित स्वार्थों की पूर्ति हो रही थी हमें नहीं पता। (ख) आज भारत के अलग-अलग प्रांतों में अलग-अलग पार्टियों की सरकारें हैं। केंद्र में मिलीजुली सरकारें आ रही हैं, आगे भी उसी तरह की सरकारों के आने के आसार हैं। ऐसे में किसी एक पार्टी का समर्थन करने या उसकी कठपुतली बनने पर किसी राष्ट्रीय मीडिया हाउस को फायदे की जगह नुकसान ही ज्यादा होने की संभावना है। (ग) जिन मीडिया हाउसों का खुलेआम किसी विशेष राजनीतिक पार्टी से संबंध रहा है, उन्हें घटती लोकप्रियता के रूप में इसका खामियाजा उठाना पड़ा है।


भारतीय मीडिया की अपनी समस्याएं हैं। ये समस्याएं पश्चिमी देशों या दक्षिण अमरीका के देशों या चीन से भिन्न हैं। भारत में हर संस्था ने अपने मानकों को नीचा किया है। हर संस्था की इज्जत जनता की नजरों में कम हुई है। एक डाक्टर को पहले जैसी इज्जत नहीं मिलती, एक वकील, जज, इंजीनियर, प्राध्यापक- हर पेशेवर धंधे के मानकों में कमी आई है। इसी तरह पत्रकारिता के पेशे में भी मूल्यों का क्षरण हुआ है।


जिस तरह कोई व्यक्ति सिगरेट, शराब और फास्ट फूड के सेवन से स्वयं अपना स्वास्थ्य खराब कर लेता है लेकिन इसका दोष मिलावटी खाद्य सामग्री और प्रदूषित हवा-पानी पर थोपना चाहता है, उसी तरह भारतीय मीडिया की ज्यादातर बीमारियों के कारण स्वयं उसके अंदर हैं। बाहर से यदि उस पर प्रभाव पड़ा भी है तो वह उतना ही है जितना किसी का स्वास्थ्य प्रदूषित हवा-पानी से खराब हो सकता है।


ब्लैक मेलिंग


भारतीय मीडिया की सबसे बड़ी बीमारी है ब्लैक मेलिंग की। ब्लैक मेलिंग ने मीडिया को सबसे ज्यादा बदनाम किया है। इस बीमारी का दोष मीडिया को छोड़कर और किसको दिया जा सकता है? ब्लैक मेलिंग की सबसे खास बात यह है कि एक मीडिया हाउस आपका भयादोहन कर रहा है तो आप अपना स्पष्टीकरण लेकर दूसरे मीडिया हाउस में नहीं जा सकते। क्योंकि हर मीडिया हाउस मीडिया युद्ध थोपे जाने से बचना चाहता है। आखिर किस सरकार, राजनीतिक पार्टी या कारपोरेट हाउस ने कहा है कि मीडिया हाउस या प्रकाशन संस्थान अपने यहां निष्पक्ष अंबुड्‌समान (वह संस्था जो प्रकाशन संस्थान के विरुद्ध शिकायतों की सुनवाई करे) की स्थापना न करे। आज इंटरनेट आने के बाद यह करना बिल्कुल आसान भी हो गया है। शिकायतकर्ता अपनी पहचान छुपाते हुए ई-मेल के जरिए अपनी शिकायत भेज सकता है। लेकिन देश के एक-दो को छोड़कर किसी भी मीडिया संस्थान में ब्लैक मेल की व्याधि से लड़ने की कोई इच्छा दिखाई नहीं देती। चैनलों और अखबारों के स्थानीय संवाददाता लगभग स्वतंत्र रूप से काम करते हैं। कम पारिश्रमिक पर कड़ी मेहनत करने वाले ईमानदार संवाददाताओं की कमी नहीं है। लेकिन कई संवाददाता ऐसे भी होते हैं जो स्थानीय उद्यमियों, सरकारी अधिकारियों से पैसे ऐंठने की जुगत भिड़ाने में ही ज्यादा समय बिताते हैं। लेकिन फिर भी इनके विरुद्ध औपचारिक शिकायत उनके संस्थान के संपादक या प्रबंधन को कभी नहीं की जाती। इसका एक ही कारण समझ में आता है कि आम लोगों को इन संस्थानों के संपादक या प्रबंधन की निष्पक्षता या कार्रवाई करने की इच्छाशक्ति पर शायद भरोसा नहीं है।


नियामक संस्था



हर पेशे के निर्धारित मानकों की रक्षा के लिए उससे संबंधित नियामक संस्थाएं होती हैं। जैसे एलोपैथी चिकित्सकों के लिए मेडिकल कौंसिल आफ इंडिया, वकीलों के लिए बार कौंसिल आदि। इन पेशों में जाने के लिए एक न्यूनतम योग्यता की आवश्यकता होती है और ये नियामक संस्थाएं यह योग्यता देखकर ही उन्हें अपना काम करने का लाइसेंस देती हैं। लेकिन पत्रकारिता एक ऐसा पेशा है जिसमें प्रवेश करने के लिए किसी न्यूनतम योग्यता की आवश्यकता नहीं होती। तभी तो हम देखते हैं कि सिर्फ कंपनी का प्रबंध निदेशक होने के कारण कोई अपने अंग्रेजी अखबार का संपादक बन जाता है जबकि उसे अंग्रेजी का एक वाक्य लिखना भी नहीं आता। क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि किसी अस्पताल का मालिक उसका मुख्य चिकित्सक भी बन जाए।

हम केवल यह सोच सकते हैं कि काश पत्रकारों की भी अपनी कोई नियामक संस्था होती, जिसे पत्रकार ही गठित करते और पत्रकार ही संचालित करते। जो पत्रकार बनने के लिए मानक तय करती, जिसकी मान्यता प्राप्त करना किसी भी पत्रकार के लिए सम्मान का कारण होता, जिसके मान्यताप्राप्त संपादक को ही कोई संपादक मानता। लेकिन यह विचार मात्र है जिसके हकीकत बनने की दूर-दूर तक उम्मीद नहीं है। तब तक हम सब मिलकर पत्रकारिता पर हमले के लिए पूंजीवाद, बाजारवाद और कारपोरेट्‌स को दोषी ठहराकर समय व्यतीत कर सकते हैं।


गुणवत्ता


हम हिंदी वाले इस बात की शिकायत करते नहीं थकते कि 56 करोड़ लोगों की भाषा होने के बावजूद हिंदी के अखबारों को राष्ट्रीय अखबार नहीं माना जाता, न ही उन्हें वह सम्मान प्राप्त होता है जो एक प्रादेशिक अंग्रेजी अखबार को भी प्राप्त हो जाता है। इसके लिए हिंदी अखबारों का प्रबंधन और उसके संपादक दोनों ही दोषी हैं। दैनिक भास्कर और दैनिक जागरण जैसे विशाल प्रसार संख्या वाले अखबार आज पर्याप्त धन कमा रहे हैं। इनकी गिनती विश्व के बड़े अखबारों में होती है। लेकिन जहां तक इनकी दृष्टि का सवाल है वह वैश्विक तो क्या राष्ट्रीय भी नहीं हो पाई है।


आज हर बड़े अंग्रेजी अखबार के संवाददाता मध्य पूर्व, न्यूयार्क, वाशिंगटन, लंदन आदि विश्व के प्रमुख शहरों में हैं। लेकिन बड़े हिंदी अखबारों के संवाददाता विदेशों में तो क्या भारत के ही चेन्नई, बंगलुरु, पूना, मुंबई, कोलकाता, हैदराबाद जैसे प्रमुख शहरों में नहीं हैं। आर्थिक गतिविधियों के केंद्र बंगलुरु और मुंबई में संवाददाता रखे बिना ये अखबार आर्थिक जगत की खबरों के लिए किस पर निर्भर रहते होंगे आप सहज ही अनुमान लगा सकते हैं। अंग्रेजी एजेंसियों पर।


गुवाहाटी के हिंदी दैनिकों की ही बात करें तो मुझे याद नहीं आता किसी भी हिंदी दैनिक ने अपने पत्रकारों के लिए आज तक कोई प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित किया हो। शायद ही किसी संपादक ने अपने संस्थान के प्रबंधन से इसकी आवश्यकता के बारे में चर्चा की होगी। फिर इसमें आश्चर्य क्या कि आज हमारे अपराध संवाददाता एफआईआर और जीडी इंट्री के अंतर को नहीं जानते, संज्ञेय और असंज्ञेय अपराध के अंतर को नहीं जानते। हमारे पूर्वोत्तर के पत्रकारों को संविधान के अनुच्छेद 371 तथा छठी अनुसूची के बारे में विशेष ज्ञान होना चाहिए। इसके लिए संविधान विशेषज्ञों द्वारा एक दिन का प्रशिक्षण कार्यक्रम किया जा सकता है। इनर लाइन परमिट के इतिहास और प्रावधानों की जानकारी होनी चाहिए, जिसके अभाव में हम उन्हें अक्सर कहते सुनते हैं- ""हाय! भारत के ही एक हिस्से में जाने के लिए अनुमति लेनी पड़ती है।''


शायद ही कोई प्रबंधन होगा जो अपने पत्रकारों से कहेगा कि आप अपनी गुणवत्ता बढ़ाने के लिए व्यक्तिगत तौर पर प्रयास न करें। लेकिन ऐसा प्रयास कदाचित ही देखने में आता है। इसके विपरीत देखने को मिलती है भाषा के प्रति लापरवाही, न सीखने की जिद, शब्दकोश न खोलने की जिद, अपना ही अखबार न पढ़ने की जिद।


इस अंधकार और निराशामय वातावरण के लिए प्रबंधन या बाहरी ताकतों को कैसे जिम्मेवार ठहराया जा सकता है।