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Journalist and writer, Writes on Northeast India, Bangladesh, Myanmar

शुक्रवार, 28 नवंबर 2008

जिहादी आतंकवाद का मुकाबला कांग्रेस और भाजपा को मिलकर करना होगा

इसमें कोई शक नहीं कि मुंबई पर हुआ हमला भारत का 9/11 है। सवाल है कि क्या हम उस तरह के कदम उठाने के लिए तैयार हो पाए हैं जिस तरह के कदम अमरीका ने पिछले सात सालों में फिर से किसी 9/11 की पुनरावृत्ति रोकने के लिए उठाए हैं।

इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि कल को फिर से सशस्त्र बदमाशों का दल भारत के किसी अन्य शहर के किसी होटल, स्टेशन या हवाईअड्डे पर हमला नहीं कर देगा। ऐसा हो ही सकता है। लेकिन सवाल है कि क्या हम आज भी यह स्वीकार करने के लिए तैयार हैं कि आतंक के विरुद्ध ईमानदार, पार्टीगत राजनीति से इतर जीरो टालरेन्स की नीति अपनाने में काफी देर हो गई है?


आतंक का मुकाबला करने के रास्ते में बाधा यह नहीं है कि कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी के बीच कोई मौलिक वैचारिक मतभेद हैं, न ही हमारे गृह मंत्री कोई बाधा हैं जो जीवंत कैमरे के सामने बिना यह सोचे कि आतंकवादी और उनके आका भी टीवी देख रहे होंगे, सूचना देते हैं कि 200 कमांडों दिल्ली से इतनी बजे रवाना हो चुके हैं।

आतंकवाद का मुकाबला करने में बाधा है हमारी अति यर्थाथवादी राजनीति जो विचारधारा के आधार पर नहीं गणित के आधार पर चलती है। इसलिए जब हमारा राजनीतिक वर्ग आतंकवाद के बारे में सोचता है तो वह इसके संप्रदायीकरण के बारे में भी सोचता है। इसमें यूपीए और एनडीए दोनों ही समान रूप से दोषी हैं। जहां भाजपा केवल जिहादी आतंकवाद के बारे में सोचती है, वहीं कांग्रेस आतंकवाद के मूल कारणों की खोज में समय जाया करती है।

केपीएस गिल ने अपने आलेख में ठीक ही लिखा है कि आतंकवाद से मुकाबला करने के लिए कानून का सहारा लिया जाए या विकास का सहारा लिया जाए या राजनीति का सहारा लिया जाए या बातचीत का सहारा लिया जाए या पुलिस का सहारा लिया जाए या मिलिटरी का सहारा लिया जाए - इस िनरर्थक बहस में उलझने का कोई मतलब नहीं है। आतंकवाद से मुकाबला करने का एक और एकमात्र तरीका है आतंकवाद विरोध या काउंटर टेररिज्म, इसमें ही सारी बातें समाहित हो जाती हैं।


जब मालेगांव बम विस्फोट में हिंदुओं का हाथ मिला तो कांग्रेस पक्ष के कुछ लोगों के चेहरों पर मुस्कान छुपाए नहीं छुप रही थी। तो दूसरी ओर भाजपा मामले की जांच कर रहे एटीएस और उसके प्रमुख की विश्वसनीयता पर ही प्रश्नचिन्ह लगाते हुए इसके प्रमुख हेमंत करकरे को हटाने की मांग करने लगी।

हेमंत करकरे अब अंततः मरने के बाद वह चीज हासिल कर लेंगे जो वे जीवित रहते कभी नहीं कर पाते। वह चीज है कांग्रेस और भाजपा दोनों के ही नेताओं की आंखों से एक साथ निकली आंसू की चंद बूंदें। यही वह चीज है जो आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में आज सबसे महत्वपूर्ण है। एक साथ।

आतंकवाद को छोड़ दें तो देश में सबकुछ ठीकठाक ही चल रहा था। दुनिया भर की मंदी के बीच हम सात फीसदी वृद्धि दर की उम्मीद कर रहे थे। चांद को भी हमने छू लिया। देश के कई शहरों में बम विस्फोट करने वाले गिरोह को भी हमने पकड़ने में कामयाबी हासिल कर ली। कश्मीर में साठ फीसदी मतदान हो गया। तो हम आधा या एक दर्जन दहशतगर्दों को इस देश की तकदीर लिखने की इजाजत कैसे दे सकते हैं।

होने को इन दहशतगर्दों के हाथ बहुत लंबे होंगे लेकिन भारत की संकल्प शक्ति भी अभी चुकी नहीं है। जरूरत है इसके राजनीतिक वर्ग को एक साथ आने की। आज देश की दो सौ बीस करोड़ आंखें मनमोहन सिंह, लालकृष्ण आडवाणी, लालूप्रसाद, मुलायम सिंह, मायावती और प्रकाश करात को एक मंच से यह घोषणा करते हुए देखना चाहती हैं कि आतंकवाद से मुकाबला करने के मामले में सारा देश एक है। इस मुद्दे पर किसी तरह की राजनीति न तो की जाएगी और न ही बर्दाश्त की जाएगी।

गुरुवार, 27 नवंबर 2008

यह राजनीतिक वर्ग नही कर पाएगा आतंकवाद से मुकाबला

मुंबई में बुधवार को हुए आतंकी हमलों को हम भारतीय पैमाने से अब तक के सबसे बड़े हमले कह सकते हैं। भारत में अब तक जो आतंकी हमले होते आए हैं उनमें अक्सर कोई चुपचाप स्वचालित बम रख जाता है। हमलों की अक्सर कोई भी संगठन जिम्मेवारी नहीं लेता, अगर लेता भी है तो यह पता लगा पाना मुश्किल होता है कि जिस संगठन ने जिम्मेवारी ली है क्या वह सचमुच हमलों के पीछे था। लेकिन बुधवार की रात से हुए हमलों ने भारत में आतंकवाद की घटनाओं में एक नया मोड़ ला दिया।

इन हमलों में आतंकवादी सामने आकर आक्रमण कर रहे थे, इन हमलों में कुछ आतंकवादी मारे गए तो हमने कई जाबांज पुलिस अधिकारियों को भी खो दिया। इन हमलों के बाद भारत वैश्विक इस्लामी आतंकवाद से पूरी तरह जुड़ गया है इसमें कोई शक नहीं रहना चाहिए।

इस्लामी आतंकवाद की घटनाएं सिर्फ भारत में ही नहीं हो रही, बल्कि अमरीका के दो टावरों को गिराने की घटनाओं से इस्लामी आतंकवाद की घटनाओं की शुरुआत हुई। इसके बाद ब्रिटेन में भी आतंकी हमले हुए। मुंबई में १९९३ में हुए बम विस्फोट भी शहर के इतिहास में एक काले अध्याय के रूप में याद किए जाते हैं लेकिन उनका वैश्विक इस्लामी आतंकवाद के साथ कोई रिश्ता नहीं था।

बुधवार के आतंकी हमले में ब्रिटिश और अमरीकी नागरिक मुख्य रूप से निशाने पर थे। शुरुआती रपटों में कहा गया है कि अन्य यूरोपीय देशों के नागरिकों को आतंकवादी छोड़ दे रहे थे।

अमरीका-ब्रिटेन में आतंकवाद के साथ जिस तरह निपटा जा रहा है उसकी भारत के साथ कोई समानता नहीं है। आतंकवाद के साथ निपटने में सबसे बड़ी भूमिका राजनीतिक वर्ग की है। लेकिन अफसोस कि राजनीतिक वर्ग ने, भले वह सत्ता से जुड़ा हो या विपक्ष में हो, अभी तक वैश्विक इस्लामी आतंकवाद के खतरे को पूरी तरह पहचाना नहीं है। ऐसा किसी भी आतंकी घटना के बाद उसके व्यवहार से पता लगता है।

भयंकर से भयंकर आतंकी घटना को भी उसने किसी रोजमर्रा की राजनीतिक परेशानी के रूप में देखा है। मानो यह कोई मजदूरों की हड़ताल हो, कोई छात्रों का दंगा फसाद हो या प्रदर्शनकारियों पर गोली चालन हो। ऐसी घटनाएं होती हैं और बाद में भुला दी जाती हैं। उनका देश के भविष्य पर कोई गहरा असर नहीं पड़ता। राजनीतिक वर्ग की राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता ऐसे मामलों में सामने आती है और उसे लोकतंत्र की आवश्यक बुराई के रूप में आम नागरिक स्वीकार भी कर लेते हैं।

लेकिन आतंकवाद की घटनाओं के बाद जब सत्ताधारी नेता घटनास्थल पर जाकर फोटो खिंचवाते हैं, जब विपक्ष के नेताओं में यह होड़ लग जाती है कि कौन सबसे पहले घटनास्थल पर जाकर टीवी कैमरों के सामने बयान देगा, जब पत्रकारों के सामने राजनीतिक पार्टियों के नेता एक दूसरे पर कीचड़ उछालने की प्रतियोगिता में लिप्त हो जाते हैं, जब एक-एक आतंकवाद को एक-एक धर्म के साथ जोड़ने की कवायद शुरू हो जाती है, जांच एजेंसियों के पहले ही राजनेता यह बताने लग जाते हैं कि आतंकवादी कार्रवाई के पीछे कौन था - तब यह समझना बाकी नहीं रह जाता कि इस वर्ग ने अभी यह समझा ही नहीं है कि विश्व इस्लामी आतंकवाद क्या चीज है?

यह एक नई मुसीबत है और आने वाले दिनों में हमें इसे और भी भुगतना है। अब भी समय है और हमारे राजनीतिक वर्ग को यह तय कर लेना चाहिए कि उन्हें विश्व इस्लामी आतंकवाद के साथ किस तरह एक होकर निपटना है। मान लिया कि भारत की दो दर्जन छोटी-छोटी पार्टियों के बीच कोई समझौता नहीं हो सकता। लेकिन क्या कांग्रेस, भारतीय जनता पार्टी और वामपंथी जैसी बड़ी पार्टियां इस मुद्दे पर एकमत होकर एक आचार संहिता नहीं बना सकतीं?

यदि राजनीतिक वर्ग आतंकवाद को भी चुनाव में जीत हासिल करने के एक जरिए के रूप में ललचाई आंखों से देखेगा तो मुसीबत हमारे गले तक आ जाएगी और उसके बाद इस बात के लिए समय ही नहीं रहेगा कि मिलबैठ कर कोई साझा नीति तय की जाए।

यह भी दिलचस्प है कि बंद कमरों में जब बात होती है तब हर पार्टी का नेता यह स्वीकार करता है कि आतंकवाद का राजनीति के साथ कोई संबंध नहीं है। इसके लिए सुरक्षा मजबूत करनी होगी, सुरक्षा तंत्र को अत्याधुनिक बनाना होगा।

देश में अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग राजनीतिक दलों की सरकारें हैं और शायद ही कोई राज्य आतंकवादी घटनाओं से अछूता रहा हो। इससे साबित होता है कि आतंकवाद का मुकाबला करने में सभी राजनीतिक पार्टियां अब तक नाकामयाब साबित हुई हैं। लेकिन यही नेता जब जनता के बीच भाषण देते हैं या पत्रकारों को संबोधित करते हैं तो इस तरह दिखाते हैं मानों उनकी पार्टी ही आतंकवाद पर सबसे ज्यादा कठोर है, दूसरे सभी समझोतावादी हैं।

दरअसल आतंकवाद से मुकाबला करने के लिए राज्यों और केंद्र सरकार दोनों को ही काफी कुछ करना है। असम तथा उत्तर प्रदेश के पूर्व पुलिस प्रमुख प्रकाश सिंह इस विषय पर लगातार लिखते रहे हैं। उन्हीं की पहल पर सुप्रीम कोर्ट ने राज्य सरकारों के लिए निर्देश जारी किए थेताकि पुलिस के काम में बेवजह राजनीतिक दखलंदाजी को रोका जा सके। लेकिन ज्यादातर राज्य सरकारों ने उन निर्देशों पर लीपापोती करने की कोशिश की है। इसमें कांग्रेस, भाजपा, बसपा - सभी पार्टियां दोषी हैं। राजनीतिक वर्ग पुलिस पर अपनी गिरफ्त को ढीली नहीं करना चाहता, उसे काम करने का मौका नहीं देना चाहता, आतंकवाद से मुकाबला किस तरह किया जाए इस विषय पर कभी उसकी सलाह नहीं लेता।
गुवाहाटी के विस्फोटों के बाद इन्हीं कालमों में हमने लिखा था कि सरकारें दबाव में काम करती हैं। यह दबाव बनाने के लिए जनता को सड़कों पर उतरना होगा। गुवाहाटी में पिछले दिनों एक गैर-राजनीतिक छात्र संगठन के बैनर तले जिस तरह हजारों की संख्या में लोगों ने आतंकवाद पर सरकारी अकर्मण्यता के खिलाफ आवाज बुलंद की, वैसी पहल की जरूरत सारे भारत में है। आम जनता के दबाव में ही राजनीतिक वर्ग आतंकवाद पर अपना हार-जीत का खेल खेलने से बाज आ सकता है।

बुधवार, 26 नवंबर 2008

दलित को इंतजार न्याय का


लक्ष्मी उरांव.
शायद यह नाम लोग भूल चुके होंगे, क्योंकि यह देश की किसी सेलेब्रिटी या राजनीतिक नेता का नाम नहीं है. लेकिन लोग अभी भी देश भर के टीवी चैनलों पर दिखाई गई उस तस्वीर को नहीं भूले होंगे जिसमें एक सांवले रंग की चाय मजदूर समुदाय की लड़की बिल्कुल निर्वस्त्र अपनी लाज बचाने के लिए सड़क पर दौड़ रही है.

यह आज से ठीक एक साल पहले यानी 24 नवंबर 2007 की घटना थी, जो गुवाहाटी के बेलतला में घटी.

इस तस्वीर को लेकर यह बहस खड़ी हुई थी कि क्या ऐसी तस्वीर छापना पत्रकारिता के सिद्धांतों के अनुकूल है. जो लोग अर्धनग्न अभिनेत्रियों की तस्वीरों के माध्यम से मनुष्य की आदिम वृत्तियों को सहलाने के बहाने अपना धंधा गर्म करने पर कभी आत्मचिंतन नहीं करते उन्हीं लोगों को जब समाज की गदंगी दिखाई गई तो वे सिहर उठे और चिल्लाने लगे कि "बंद करो यह अश्लीलता'.

बेलतला की कुख्यात घटना को एक साल पूरा होने के बाद आज यह साफ हो चुका है कि युवती की तस्वीर को पर्याप्त रूप से ढककर छापना कहीं से भी गलत नहीं था, गलत था उस घटना की भयावहता को ढकने का प्रयास करना.

यूं गुजर गया वक्त

आज एक साल बीत जाने के बाद यह सवाल अपनी जगह खड़ा है कि एक लड़की को सरेराह निर्वस्त्र कर देना, एक व्यक्ति को पीट-पीटकर मार डालना और दर्जनों को गंभीर रूप से जख्मी कर देना - इन सब अपराधों को किसी बंद कमरे में नहीं बल्कि बीच सड़क पर दिन के उजाले में अंजाम देने वालों के विरुद्ध कानूनी कार्रवाई करने के लिए सरकार को और कितने वक्त की जरूरत है.

बेलतला की शर्मनाक घटना के सिलसिले में सात मामले स्थानीय थाने में दर्ज कराए गए. इनमें से मात्र एक मामले को छोड़कर बाकी किसी में भी आरोप पत्र तक दाखिल नहीं हुआ है. जिस एक मामले में आरोप पत्र दाखिल हुआ और चार युवकों को गिरफ्तार किया गया उसमें भी अभियोग पक्ष की ओर से अदालत में कार्रवाई को आगे बढ़ाने के लिए कुछ नहीं किया गया. नतीजा क्या होगा हम जानते हैं, मामला धीरे-धीरे स्वयं ही अपनी मौत मर जाएगा.

घटना की जांच के लिए एक न्यायिक आयोग का गठन हुआ. आयोग ने समय पर अपनी जांच पूरी कर दी. जांच रपट को 1 अप्रैल को राज्य विधानसभा के पटल पर रखा गया. लेकिन सरकार ने मात्र यह कहकर पल्ला झाड़ लिया कि वह केंद्र सरकार से सीबीआई जांच के लिए अनुरोध कर चुकी है.

राष्ट्रीय महिला आयोग ने भी अपनी ओर से घटना की जांच की. इसने भी घटना की सीबीआई से जांच कराने की अनुशंसा की. लेकिन सरकार ने आज तक आयोग को यह बताने की जहमत नहीं उठाई कि उसकी अनुशंसाओं पर सरकार ने क्या कार्रवाई की है.


उधर घटना की शिकार लक्ष्मी उरांव एक राजनीतिक पार्टी के टिकट पर लोकसभा का चुनाव लड़ने की तैयारियां कर रही है. उसने अपने अनुभव से यह जाना है कि देश में न्याय उसी को मिलता है जो राजनीतिक रूप से ताकतवर हो. सड़क पर निर्वस्त्र की गई लक्ष्मी आज सड़कों पर चुनावी सभाएं करने में व्यस्त है. इसी में उसे आदिवासी समाज की मुक्ति दिखाई देती है.

लेकिन लक्ष्मी की यह राह भी आसान नहीं है.

उम्र पर राजनीति

जिस झारखंड दिशोम पार्टी ने लक्ष्मी के मुद्दे को देश भर में उठाया, वही दिशोम पार्टी अब लक्ष्मी के तेज़पुर लोकसभा क्षेत्र से चुनाव मैदान में उतरने से नाराज़ है और इसके लिए उसकी उम्र को मुद्दा बना रही है. पार्टी का दावा है कि लक्ष्मी की उम्र 25 से कम है और वह चुनाव नहीं लड़ सकती.

यहां तक कि जिस ऑल आदिवासी स्टूडेंट्स एसोसिएशन की रैली में विरोधी गुंडों द्वारा लक्ष्मी को प्रताड़ित किया गया था, वह एसोसिएशन भी लक्ष्मी को लोकसभा की टिकट देने के खिलाफ है.

लक्ष्मी को लोकसभा की टिकट देने का प्रस्ताव रखने वाली असम युनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट भी इन आरोपों से थोड़ी पशोपेश में है.

तेज़पुर में लगभग 25 फीसदी मतदाता चाय बगान में काम करने वाले आदिवासी मज़दूर हैं और असम युनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट को उम्मीद है कि लक्ष्मी इन मतदाताओं का वोट तो पाएंगी ही. विवादों में फंसे तेज़पुर से लोकसभा सदस्य और लॉटरी किंग मणीकुमार सुब्बा के खिलाफ लक्ष्मी मतदाताओं की पसंद हो सकती हैं लेकिन उम्र के विवाद से फ्रंट भी परेशान है.

तेजपुर से लक्ष्मी को पार्टी टिकट देने की घोषणा के बाद फ्रंट के अध्यक्ष बदरुद्दीन अजमल लक्ष्मी की उम्र के मुद्दे का निर्णय चुनाव आयोग पर छोड़े जाने के पक्ष में हैं. उनका कहना है कि इस मामले में चुनाव आयोग जो भी तय करेगा, उन्हें स्वीकार होगा.

हालांकि लक्ष्मी बड़ी साफगोई से कहती हैं कि वे राजनीति में किसी लोभ में नहीं आई हैं. भविष्य में किसी भी स्त्री के साथ इस तरह का दुर्व्यवहार नहीं हो, यही इच्छा उन्हें राजनीति में लाई है. लेकिन अपनी उम्र को लेकर हुए विवाद से वे दुखी हैं.

लक्ष्मी कहती हैं- “मेरा जन्म 10 अगस्त 1983 को हुआ है और मेरे पास स्कूल के प्रमाणपत्र हैं.आखिर मेरी उम्र पर सवाल खड़े करने वाले किस आधार पर यह बात कह रहे हैं, मैं खुद नहीं समझ पा रही हूं.”

राजनीतिक सवालों के कटघरे में कैद लक्ष्मी उरांव के सामने फिलहाल तो लोकसभा चुनाव का लक्ष्य है और 24 नवंबर 2007 की लड़ाई भी तो उन्हें लड़नी है. एक ऐसी लड़ाई, जो अब सुर्खियों में नहीं है और सवालों पर राजनीति की बिसात बिछाने वालों के लिए भी अब वो किसी बहस का मुद्दा नहीं है.

शनिवार, 22 नवंबर 2008

गुवाहाटी के सबक

तीस दस की घटना से आम जनता, सरकार, प्रेस और राजनीतिक नेताओं - सभी को कुछ सबक लेने चाहिए ताकि ऐसी गलतियों का दोहराव न हो।



सबसे पहले तरुण गोगोई सरकार को इस बात के लिए बधाई दी जानी चाहिए कि एक उचित समय के भीतर राज्य पुलिस की टीम ने बम विस्फोटों में शामिल लोगों में से ज्यादातर को गिरफ्तार कर लिया है। विस्फोट करने वाले उग्रवादियों ने पहले पुलिस को सही मार्ग से भटकाने के लिए एक मुस्लिम संगठन के नाम से एसएमएस भेजकर जनता के बीच भ्रम की स्थिति उत्पन्न कर दी थी। दुनिया भर में जारी इस्लामी आतंकवाद और भारत के कई शहरों में संदिग्ध जिहादियों द्वारा की गई आतंकी कार्रवाइयों के बाद आम जनता ने सहज ही ऐसे एसएमएस पर भरोसा कर लिया था। यहां तक कि विस्फोट होने के फौरन बाद कई राजनीतिक पार्टियों के नेताओं ने यह कहना शुरू कर दिया था कि इनके पीछे जिहादियों का हाथ है।



ऐसे भयानक बम विस्फोट इससे पहले असम में हुए नहीं थे इसलिए यह संदेह होना स्वाभाविक था कि इनके पीछे अब तक राज्य में सक्रिय अलगाववादी विद्रोहियों के अलावा अन्य कोई ताकत होगी। लेकिन जांच के बाद इस रहस्य पर से ज्यों-ज्यों पर्दा उठने लगा है त्यों-त्यों यह स्पष्ट होने लगा है कि यह नेशनल डेमोक्रेटिक फ्रंट आफ बोड़ोलैंड की कारस्तानी थी। प्रतिबंधित संगठन एनडीएफबी के लिए आतंकी कार्रवाइयां करना कोई नई बात नहीं है और अपने शिविर चलाने के लिए जरूरी धन के लिए वह लोगों में अपने नाम का आतंक कायम रखना चाहता है। यह भी हो सकता है कि तीस दस की कार्रवाई में संगठन के शीर्ष नेताओं का दिमाग न हो और निचले स्तर पर ही किसी गुट ने यह कार्रवाई की हो।



जो भी हो, तीस दस की घटना से हमें कुछ सीख लेनी चाहिए। उस दिन की घटना में सबके लिए कोई न कोई सबक है। सबसे पहले सरकार - सरकार को चाहिए कि इसके मंत्री आतंकवादी घटना के बारे में आनन-फानन बयान न दें। वस्तुस्थिति से जनता को अवगत कराने के लिए किसी मंत्री को नियुक्त किया जा सकता है लेकिन वे सिर्फ तथ्यों के आधार पर ही बात करें। अपनी राय न दें। ऐसे बयानों से भ्रम फैलता है और जनता में गलत संदेश जाता है। जैसे तीस दस की घटना के ठीक बाद मंत्री हिमंत विश्व शर्मा के बयानों से लोगों को यह लगा कि सरकार मुस्लिम संगठनों को बचाना चाहती है।



प्रेस - प्रेस या मीडिया के लोगों को भी संयम की जरूरत है। हालांकि हम जानते हैं कि ऐसी सलाह अरण्यरोदन के सिवा और कुछ साबित नहीं होगी। मीडिया ने भी तीस दस के बाद इस तरह व्यवहार करना शुरू कर दिया था मानों उसे पक्के तौर पर मालूम है कि बम विस्फोटों के पीछे जिहादियों का ही हाथ है। मीडिया को फैशन के पीछे न दौड़कर तथ्यों के आधार पर बात करनी चाहिए। आज पीछे मुड़कर यदि बीबीसी की रिपोर्टिंग को देखें तो यह समझ में आ सकता है कि क्यों इस समाचार माध्यम की दुनिया में आज भी अलग साख है।



राजनीतिक दल - राजनीतिक दलों को हमेशा एक दूसरे से प्रतियोगिता करते रहना पड़ता है। इसलिए शायद वे भी संयम के परामर्श को उठाकर ताक पर रख देंगे। लेकिन इतनी उम्मीद तो हम कर ही सकते हैं कि कम से कम विभीषिकाओं के समय राजनीतिक दल थोड़ा संयम बरते और राजनीतिक बयानबाजी से बाज आए। सभी राजनीतिक दल इस संबंध में मिल बैठकर एक आचार संहिता तैयार कर सकते हैं कि ऐसे संकट के समय वे किस तरह पेश आएंगे। ऐसी आचार संहिता में यह शामिल किया जाना चाहिए कि अति महत्त्वपूर्ण व्यक्ति घटनास्थल पर पहुंचकर पुलिस के काम में बाधा नहीं पहुंचाएंगे।

रविवार, 16 नवंबर 2008

साले सेकुलर कहीं के

एक नई गाली चल निकली है "ये साले सेकुलर कहीं के'। किसी कुत्ते को गोली मारनी हो तो पहले उसे बदनाम कर दो। वक्त के द्वारा परखी हुई इसी तकनीक का इस्तेमाल इस समय सेकुलरिज्म के खिलाफ हो रहा है।



इसी तरह कम्युनिस्टों की शब्दावली में एक गाली दशकों से चली आ रही है "बुर्जुवा कहीं का'। जब किसी कम्युनिस्ट कार्यकर्ता को किसी उदारवादी के विचार समझ में नहीं आते या उसका उत्तर नहीं सूझता तो वह उस पर कोई न कोई लेबल चस्पां कर देता है। सबसे पंसदीदा लेबल यही होता है "बुर्जुवा'।



कल एक संघ समर्थक के साथ ट्रेन में सफर करना हुआ। बात करने समय उसका बार-बार उत्तेजित हो जाना कानों में चुभने वाला था। ऐसे में कोई संवाद स्थापित करना संभव ही नहीं होता। मसलन हमारे उन मित्र ने कहा कि बांग्लादेशी के मुद्दे पर तो तुमसे बात करके कोई फायदा नहीं है। इस बात पर ध्यान गया कि कोई भी कट्टरपंथी बात-बात पर उत्तेजित क्यों हो जाता है? ऐसा मुस्लिम कट्टरपंथी, कम्युनिस्ट कट्टरपंथी सबके साथ होता है। उनके साथ संवाद स्थापित नहीं हो पाता। शायद उन्हें संवाद की कोई वास्तविक जरूरत नहीं होती होगी। उनकी पवित्र किताबों में सारी समस्याओं के समाधान दिए हुए होंगे।



कट्टरपंथी आम तौर पर मुद्दों की चीरफाड़ करने के विरोधी होते हैं। जैसे, आप यदि कहें कि अमुक कंपनी अपने कर्मचारियों का काफी ध्यान रखती है। तो कोई कम्युनिस्ट कार्यकर्ता तुरंत आपके लिए यह धारणा बना लेगा कि आप उस कंपनी के पिट्ठू हैं। अपने विरोधी की कोई प्रशंसा सुनना उसे गवारा नहीं।



इसी तरह किसी हिंदुत्ववादी से कहें कि मुसलमानों में आपसी भाईचारे की भावना बड़ी तगड़ी है तो वह कहेगा कि "साले सेकुलरों में तो हिंदुओं के सिवा हर किसी में गुण नजर आते हैं। उन्हें बुराई केवल हिंदुओं में नजर आती है।'



यह तो हुई साधारण कार्यकर्ता की बात, लेकिन जो तपे-तपाए हिंदुत्ववादी, मुस्लिम कट्टरपंथी या कम्युनिस्ट हैं वे ऊपर से काफी सुलझे हुए लगेंगे। यानी वे आपकी बात शांति से सुनेंगे लेकिन जब वे आपके साथ बहस करने से कतराएंगे तो आपको तुरंत आभास हो जाएगा कि वे "विधर्मियों' के साथ बहस करने को समय को दुरुपयोग समझते हैं।



हर तरह के कट्टरवाद के कुछ गुणों में काफी समानता होती है। यह अध्ययन दिलचस्प है। जैसे यह कि, ऐसा लगता है कि कट्टरपंथी के मन में सदियों का गुस्सा पूंजीभूत है और वह झटके के साथ कोई परिवर्तन चाहता है और अपने विचारों का विरोध करने वालों को ही इसमें मुख्य बाधा मानता है। राजनीतिक या सांप्रदायिक हिंसा क्या इसीसे जन्मती है?

बुधवार, 12 नवंबर 2008

गुवाहाटी में आतंकवाद के खिलाफ आंदोलन शुरू

गुवाहाटी की सड़कों पर मंगलवार की दोपहर को जो जनता का समूह इकट्ठा हुआ वह असम को 29 साल पीछे ले गया। 29 साल पहले असम में अवैध घुसपैठियों के विरुद्ध एक ऐतिहासिक आंदोलन की शुरुआत कुछ इसी अंदाज में हुई थी। प्रफुल्ल कुमार महंत तथा उनके साथियों के नेतृत्व में निकाले गए जुलूस में जब अप्रत्याशित रूप से लोगों की उपस्थिति देखी गई और यह भी देखा गया कि इसमें समाज के सभी वर्ग के लोग शामिल हुए हैं तो इससे छात्र नेताओं को नई ऊर्जा मिली और विदेशी घुसपैठियों के खिलाफ ऐसा आंदोलन शुरू हुआ जिसकी मिसाल भारत में और कहीं देखने को नहीं मिलती।


होने को और भी बहुत सारे आंदोलन में देश में हुए हैं लेकिन असम आंदोलन के नाम से ख्यात इस घुसपैठिया विरोधी आंदोलन की खास बात थी इसका कुछ अपवादों को छोड़कर शांतिपूर्ण होना। आंदोलन का नेतृत्व छात्रों में से आया था लेकिन वह इतना परिपक्व था कि हिंसा का मतलब समझता था। आंदोलनों में हिंसा होने पर राज्य की शक्ति को उसे कुचलने में आसानी होती है। असम पर जबरदस्ती थोप दिए गए चुनावों के कारण बाद में हिंसा हुई भी और राज्य शक्ति ने उसे कुचला भी। इसके बाद का इतिहास भी लोगों के लिए अनजाना नहीं है। छात्रों का राजनेताओं में तब्दील होना और सत्ताधारी बनकर घुसपैठियों की समस्या को भूल जाना। फिर भी कुल मिलाकर असम आंदोलन आज भी अपनी जनभागीदारी और शांतिपूर्ण चरित्र के लिए याद किया जाता है।


यह अजीब संयोग है कि 1979 के आंदोलन की शुरुआत भी लोगों के राजनेताओं से मोहभंग के कारण हुई थी। और मंगलवार को जज फील्ड में जो समागम हुआ वह भी जनता की राजनेताओं और राजनीतिक पार्टियों के प्रति मोहभंग के कारण हुआ है। राजनेता भले कितने ही चालाक बनने की कोशिश करे, लोगों से यह छुपा पाने में वे बिल्कुल असफल रहते हैं कि उनके एक-एक शब्द के पीछे राजनीति छुपी रहती है। और वह राजनीति सिर्फ सत्तासुंदरी को प्राप्त करने के एकमात्र मकसद तक सीमित रहती है। इसलिए इसमें आश्चर्य नहीं होता जब कई-कई सालों तक सत्तासुख भोगने का तथाकथित जनादेश प्राप्त करने वाली राजनीतिक पार्टियों के आंदोलनात्मक कार्यक्रमों में भी चंद पार्टी कार्यकर्ताओं के ही दर्शन होते हैं। आम जनता को वैसे बंद, धरना या जुलूस वाले तथाकथित आंदोलनों से कोई लेना-देना नहीं होता।


असम में बम विस्फोटों के बाद जिस तरह का जनजागरण शुरू हुआ है वैसा बंगलोर, मुंबई, जयपुर, दिल्ली या अहमदाबाद में देखने को नहीं मिला। इसका कारण यह होगा कि असमवासियों की छठी इंद्रीय ने शायद जान लिया है कि 30 अक्टूबर के बम धमाके तो एक शुरुआत भर थे आगे इससे भी भीषण विभीषिकाएं उनका इंतजार कर रही हैं। 1979 के दौरान एक लोकप्रिय नारे का भावार्थ यह था कि आज जो कुछ असम में हो रहा है वही कल सारे भारत को भोगना होगा। आज जब हम दिल्ली, जयपुर, मुंबई आदि शहरों को बांग्लादेशी आबादी से जूझते देखते हैं तो पाते हैं कि 29 साल पहले कही गई बातें सौलहों आने सच थीं।

रविवार, 9 नवंबर 2008

तो आप मुसलमानों से क्या अपेक्षा करते हैं दीनानाथ जी

दीनानाथ मिश्र का इस सप्ताह का कालम पढ़ा। मिश्र जी का कहना है कि भारत के मुसलमान विद्वानों में से बहुत सारे अपराधबोध से ग्रसित हैं। वे कुरान की गलत व्याख्या करते हुए जिहाद का गलत अर्थ बताते हैं। काफिर का गलत अर्थ बताते हैं। आखिर हम जिहादियों का अर्थ सही मानें या इन विद्वानों का बताया अर्थ। कुल मिलाकर ध्वनि यही निकलती है कि इन विद्वानों की लीपापोती से क्या होगा, असली अर्थ तो जिहादी लोग ही बता रहे हैं।

चलो एक बार के लिए मान भी लिया जाए कि जिहादियों का बताया अर्थ ही सही है तो फिर उपाय क्या है? क्या हमें समाधानपरक चिंतन नहीं करना चाहिए? समाधान शायद दीनानाथ जी के मन में यह होगा कि भारत के मुसलमानों को खत्म कर दिया जाए। या यह नहीं किया जा सके तो उन्हें आतंकित कर रखा जाए। उन्हें ऐसी बस्तियों तक सीमित कर रखा जाए जैसा आज तक दलितों को रखा जा रहा है। यह तो संभव नहीं है।

कुरान में क्या लिखा है इसके आधार पर ही क्या कोई समाधान होगा? मान लिया कि कुरान में गैर-मुसलमानों के लिए आपत्तिजनक बातें लिखी हैं और जिहादी उन्हीं को सही मानते हैं। लेकिन यह जरूरी है कि हर कोई कुरान के एक-एक शब्द पर ही चले? या कुरान की जिहादियों की व्याख्या पर (वे सही हों तो भी) ही चले? क्या हमारा यह कर्तव्य नहीं बनता कि शांतिप्रिय मुसलमानों के हाथ मजबूत करें। आखिर कुरान के रहते हुए भी भारत में सूफी परंपरा चली। सूफी मतवाद की बातों को अरब के मुसलमान गैर-इस्लामी बता देंगे, लेकिन क्या सूफी मत का भारत के मुसलमानों पर कोई प्रभाव नहीं रहा।

मनुस्मृति में क्या लिखा है इस आधार पर आज के सवर्ण दलितों के प्रति अपना आचरण तय नहीं करते। इसलिए यह अपेक्षा भी नहीं करते कि मनुस्मृति के आधार पर यह मान लिया जाए कि आज के सभी सवर्ण दलितों को अस्पृश्यता को बनाए रखने के समर्थक हैं।


मान लिया कि मुसलमान राजाओं के कत्लेआम और आतंकवादियों के नरसंहार के सामने मालेगांव की घटना कुछ भी नहीं है। लेकिन पकड़े गए लोगों के साथ कानून के अनुसार तो व्यवहार तो होना ही चाहिए। अमरीका में इतने बड़े ट्रेड सेंटर गिरा दिए गए। लेकिन एक सिख को मुसलमान समझकर मारने वाले अमरीकी नागरिक को वहां की सरकार ने यह कहकर माफ तो नहीं कर दिया कि यह तो छोटी सी घटना है। मालेगांव के आरोपियों की तरफदारी करना दीनानाथ जी को या उनके आका राजनाथ जी को शोभा नहीं देता।

शायद समझदार लोग इसका भी कोई जोरदार सा जवाब दे डालेंगे। लेकिन मुसलमानों की गलतियां गिनानें की बजाय यह तो बताया जाए कि समाधान क्या है? देश को किस दिशा में ले जाना है।

शनिवार, 8 नवंबर 2008

भारत का ओबामा

जो सवाल चिंतनशील भारतीयों के मन में उभर रहा है वह है भारत कब अपना ओबामा पैदा करेगा। ओबामा का उदय अमरीकी इतिहास में एक मील का पत्थर है और ऐसी घटनाएं सदी में एक-दो बार ही हुआ करती हैं। लेकिन भारत तो सदियों से अपने ओबामा के उदय के इंतजार में बैठा हुआ है। क्या हमारे यहां की राजनीतिक व्यवस्था दलित या मुस्लिम समुदाय से आने वाले किसी व्यक्ति को देश के सर्वोच्च पद पर पहुंचा सकती है।

मायावती के कारण कुछ उम्मीद जगती है। लेकिन मायावती भारत की ओबामा नहीं हो सकतीं। मायावती चाहकर भी अपने दलित वोटबैंक को दरकिनार सारे भारतवासियों का समर्थन हासिल नहीं कर सकतीं। उनकी राजनीति दलितों का अपने सत्तारोहण के लिए सीढ़ी के रूप में इस्तेमाल करती है। उनमें ऐसी दलित नारी बनने की क्षमता प्रतीत नहीं होती जिसके माध्यम से सारा देश एक नए युग में प्रवेश करने का सपना देख सके। जिसके सत्तारोहण के माध्यम से देश सदियों से दलित समुदाय पर किए गए अत्याचारों का पश्चाताप कर सके।

क्या कांग्रेस या भारतीय जनता पार्टी में ओबामा जैसे किसी नेतृत्व का विकास करने की क्षमता है? हाल की राजनीति पर नजर डालने से तो ऐसा नहीं लगता। हमारी राजनीतिक पार्टियों में युवाओं के आगे बढ़ने के रास्ते में न जाने कैसी बाधा है कि अपने युवाकाल में वे पार्टी गतिविधि के शीर्ष पर पहुंच ही नहीं पाते। जब तक इस राजनीतिक परिपाटी को तोड़ा नहीं जाएगा तब तक ओबामा जैसी परिघटना की पुनरावृत्ति अपने यहां देखने को नहीं मिलेगी।

हमारी मुख्यधारा की दोनों ही राजनीतिक पार्टियां खुशामद और चापलूसी से संचालित होती हैं। टिकटों के बंटवारे के लिए उनके यहां कोई ऐसी स्वयंक्रिय प्रक्रिया नहीं है जो योग्य उम्मीदवार को अपने आप आगे बढ़ाती जाए। टिकटों के बंटवारे की प्रक्रिया पर बड़े और बुढ़े नेता (कांग्रेस में गांधी परिवार) पूरी तरह कब्जा जमाए हुए हैं, क्योंकि आखिर यही तो वह चीज है जिसके माध्यम से आप अपने प्रति वफादारी को पुरस्कृत और गैर-वफादारी को दंडित कर सकते हैं। इस तरीके से पुराना नेतृत्व कभी भी पार्टी तंत्र पर अपनी पकड़ ढीली नहीं होने देता।

हमारे यहां ओबामा जैसा युवा नेता उभरा होता तो पुराने नेता साजिश रचकर उसका कद छोटा करने में लग जाते। उसे तभी सहन किया जाता जब पुराने नेताओं को उससे कोई खतरा महसूस नहीं होता। पुराने नेताओं को खतरा महसूस न हो इसके लिए उभरते हुए भारतीय ओबामा को पर्याप्त मात्रा में चापलूसी और खुशामद का सहारा लेना पड़ता। मुश्किल यह है कि चापलूसी और खुशामद के द्वारा कोई बड़ा पद भले ही हासिल कर ले, लेकिन ओबामा नहीं बन सकता।